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शय्या
भिक्षु उपाश्रय को जाने - यदि वह उपाश्रय साधुओं को देने के उद्देश्य से मेरे एक साधर्मिक के उद्देश्य से, अनेक साधर्मिकों के उद्देश्य से, बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों (याचकों) को गिन-गिन कर उनके उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ कर बनाया गया है अथवा उन्हीं के उद्देश्य से खरीदा गया, उधार लिया गया, छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, अन्यत्र से समानीत ( संस्तारक आदि ) प्राप्त कर देता है, वैसा उपाश्रय पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत, स्वीकृत हो या अस्वीकृत, परिभुक्त हो या अपरिभुक्त, आसेवित हो या अनासेवित, उसमें स्थान- कायोत्सर्ग, शय्या - संस्तारकआसन-शयन और निषद्या - स्वाध्याय न करे ।
भिक्खू उद्देसिसेज्जं अणुपविसति ॥ आवज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि ५ / ६१, ७८)
जो भिक्षु औद्देशिक शय्या में प्रवेश करता है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है।
* औद्देशिक के भेद-प्रभेद
द्र पिण्डैषणा
३. सपरिकर्म शय्या - निषेध
जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं अणुपविसति ॥''' मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं ॥ (नि ५/६३, ७८ )
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जो भिक्षु परिकर्मित शय्या में प्रवेश करता है, वह लघुमासिक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है । सपरिकम्मा सेज्जा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य। एक्केक्का वि य एत्तो, सत्तविहा होइ णायव्वा ॥ ( निभा २०४५) सपरिकर्म शय्या दो प्रकार की है - मूलगुण- परिकर्मयुक्त और उत्तरगुण- परिकर्मयुक्त। इन दोनों के सात-सात प्रकार हैं। ० मूल- उत्तरकरण : अविशोधिकोटि-विशोधिकोटि पट्टीवंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीतो । मूलगुणेहिं उवहया, जा सा आहाकडा वसही ॥ वंसग कडणोक्कंचण, छावण लेवण दुवार भूमी य । सप्परकम्मा दूमिय धूविय वासिय, उज्जोविय बलिकडा अवत्ताय । सित्ता सम्मट्ठा विय, विसोहिकोडी कया वसही ॥
वसही, एसा मूलोत्तरगुणेसु ॥
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आगम विषय कोश - २
उपरितनस्तिर्यक्पाती पृष्ठवंशः, द्वौ मूलधारणौ ययोरुपरि पृष्ठवंशस्तिर्यग् निपात्यते चतस्रश्च मूलवेलय उभयोर्धारणयोरुभयतो द्विद्विवेलिसम्भवात्। एते वसतेः सप्त मूलभेदाः । साधून् आधाय - सम्प्रधार्य कृता आधाकृता, सप्तविधमुत्तरकरणम् । एषा सपरिकर्मा वसतिर्मूलगुणैरुत्तरगुणैश्च । एषा नियमेनाविशोधिकोटिः । ... (बृभा ५८२-५८४ वृ) • पृष्ठवंश - उपरितन तिर्यक्पाती पृष्ठवंश ।
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दो मूल धारण, जिन पर पृष्ठवंश तिरछा डाला जाता है। ० चार मूल वेली - दोनों धारणों के दोनों ओर दो-दो स्तम्भ ।
- इन सात मूल गुणों से उपहत बस्ती आधाकर्मिक होती है। मन में साधुओं का सम्प्रधारण कर बनवाई गई बस्ती आधाकृ कहलाती है। उत्तरकरण परिकर्म सात प्रकार से किया जाता हैबांस, जिन्हें स्तंभों पर स्थापित किया जाता है ।
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० कटन - चटाई आदि के द्वारा पार्श्वभागों का आच्छादन ।
० उत्कंचन - ऊपर कम्बिकाओं का बंधन ।
० छादन- घास आदि से आच्छादन ।
० लेपन - दीवार पर कर्दम और गोबर से लेपन ।
० द्वार - वसति के दूसरी ओर द्वार का निर्माण |
भूमि - विषम भूमि का समीकरण ।
मूलगुणों और उत्तरगुणों से अशुद्ध यह परिकर्मयुक्त वसति निश्चितरूप से अविशोधिकोटि वाली है ।
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अन्य भी उत्तरगुण हैं। उनसे परिकर्मित वसति विशोधिकोटि वाली होती है। वे उत्तरगुण मुख्यतः आठ हैं
दूमिता - चूने से धवलीकृत भींत वाली बस्ती ।
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धूपिता - अगुरु आदि से धूपित ।
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वासिता - पटवास, कुसुम आदि से सुवासित ।
० उद्योतिता - अंधकार में दीपक आदि से आलोकित ।
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बलिकृता - साधु के निमित्त बलिविधान किया गया हो । • अवात्ता - उपलिप्त भूमि वाली ।
सिक्ता - जल-आवर्षण से सिंचित ।
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सम्मृष्टा - साधु के निमित्त सम्मार्जनी से साफ की हुई । ४. पुरुषांतरकृत परिकर्मित शय्या कल्पनीय
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.......उवस्सयं''अस्संजए भिक्खुपडियाए कडिए वा, उक्कंबिए वा, छन्ने वा, लित्ते वा, घट्टे वा, मट्ठे वा, संमट्ठे वा,
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