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विहार
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आगम विषय कोश-२
० बन्नास नदी के पूर से भावित भूमि में धान्य बोया जाता है। ० काननद्वीप में नौका के द्वारा आनीत धान्य खाया जाता है। ० मथुरा देश में व्यापार के द्वारा जीविका चलाई जाती है।
सिन्धु देश में दुर्भिक्ष होने पर मांस के द्वारा निर्वाह किया जाता है। ० तोसलि और कोंकण के वासी पुष्प-फलभोगी होते हैं। ० वह मुनि विस्तीर्ण और संकीर्ण क्षेत्रों को जान लेता है। ० वह जनपद के आचार को जान लेता है। जैसे सिन्धु देश में मांसाहार अगर्हित माना जाता है।
वह जनपद की सामाचारी को जान लेता है। जैसे सिन्ध देश में धोबी और महाराष्ट्र में कल्यपालं सम्भोजी होते हैं। ० वह यह भी जान लेता है-अमुक क्षेत्र स्वाध्याय और संयम साधना के लिए हितकारी है। अमुक क्षेत्र दानी श्रावकों से समाकुल है। अमुक क्षेत्र में भिक्षा सुप्राप्य है। अमुक क्षेत्र वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल के योग्य है, उपद्रवकारी नहीं है। ६. आचार्य के प्रस्थान की विधि तिहि-करणम्मि पसत्थे, णक्खत्ते अहिवईण अणुकूले। घेत्तूण णिति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता॥ ....... आयरिया
मग्गओ
(बुभा १५४५, १५४६) प्रशस्त तिथि (नन्दा, भद्रा आदि), प्रशस्त करण (बव, बालव आदि) तथा आचार्य के अनुकूल नक्षत्र के आने पर सबसे पहले वृषभ साधु आचार्य की उत्कृष्ट उपधि को लेकर शकुन देखता हुआ निकले। तत्पश्चात् आचार्य प्रस्थान करें। ७. संघाटक (मुनिद्वय) का विहार कब? कैसे?
असिवे ओमोदरिए, राया संदेसणे जतंता वा। अजाण गुरुनियोगा, पव्वज्जा. णातिवग्ग दुवे॥ समगं भिक्खग्गहणं, निक्खमण-पवेसणं अणुण्णवणं।
(व्यभा १०२५, १०२६) निम्न कारणों से दो साधु विहार कर सकते हैं० अशिव (क्षुद्रदेवताकृत उपद्रव). दर्भिक्ष या राजप्रद्वेष हो। ० संदेशन-आचार्य द्वारा प्रेषण। ० ज्ञान-दर्शन-वर्धक शास्त्राभ्यास हेतु। ० गुरु की अनुज्ञा से आर्या को दूसरे क्षेत्र में ले जाने हेतु।
दीक्षार्थी के स्थिरीकरण के लिए तथा किसी साधु का ज्ञातिवर्ग वन्दापनीय हो तो उसकी वंदना के लिए।
कारणवश दो साधु विहार करते हैं, तो वे दोनों भिक्षा आदि के लिए एक साथ जाते हैं, वसति से निष्क्रमण या पुनः प्रवेश भी एक साथ करते हैं, शय्यातर को अनुज्ञापित भी एक साथ करते हैं। ० संघाटक-विहार की अर्हता कयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुतरहस्सा। जे य समत्था वोढुं, कालगताणं उवहि-देहं । एय गुणसंपउत्ता, कारणजातेण ते दुयग्गा वि। उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुण्णातो॥
(व्यभा १७४०, १७४१) प्रयोजन होने पर ऋतुबद्ध काल में दो साधुओं का विहार भी अनुज्ञात है, यदि वे पांच गुणों से सम्पन्न हों० कृतकरण-जो संघाटक-विहार में अभ्यस्त हों। ० स्थविर-जो श्रुत और दीक्षापर्याय से स्थविर हों। ० सूत्रार्थविशारद-जो सूत्रार्थ में निपुण हों। ० श्रुतरहस्य-जिन्होंने सूत्र के रहस्यों को अनेक बार सुना हो। ० समर्थ-जो मार्ग में कदाचित् एक का देहावसान हो जाये तो उसके मृत शरीर और समस्त उपधि को वहन करने में समर्थ हों। ८. एकाकी विहरण के दोष
एगविहारी अ अजायकप्पिओ जो भवे चवणकप्पे। उवसंपन्नो मंदो, होहिइ वोसट्ठतिट्ठाणो॥ नाणाई तिट्ठाणा, अहवण चरणऽप्पओ पवयणं च। सुत्त-उत्थ-तदुभयाणि व, उग्गम उप्पायणाओ वा॥
....."अजातकल्पिकः' अगीतार्थः, तथा च्यवनंचारित्रात् प्रतिपतनं तस्य कल्प:-प्रकारश्च्यवनकल्पः, पार्श्वस्थादिविहार इत्यर्थः। पाश्व
(बृभा ६९४, ६९८ वृ) । जो अगीतार्थ अकेला होकर विहार करता है, वह च्यवनकल्पचारित्र से च्युत होकर पार्श्वस्थ विहार करता है। वह एकलविहार को स्वीकार कर सद्बुद्धि से विकल हो जाता है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र-इन तीन स्थानों का परित्याग कर देता है। अथवा इन तीन स्थानों का परित्याग कर देता है
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