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आगम विषय कोश - २
अनुकूलता पैदा करना वैयावृत्त्य है । वह दस प्रकार का है१. आचार्य - वैयावृत्त्य - भव्य जीव जिनकी प्रेरणा से व्रतों का आचरण करते हैं, उनको आचार्य कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य । २. उपाध्याय - वैयावृत्त्य - जो मुनि व्रत, शील और भावना के आधार हैं, शिष्य उनके पास जाकर विनय से श्रुत का अध्ययन करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा जाता है। उनका वैयावृत्त्य करना । ३. तपस्वी-वैयावृत्त्य – मासोपवास आदि तप करने वाला तपस्वी कहलाता है। उसका वैयावृत्त्य करना ।
४. शैक्ष- वैयावृत्त्य - जो श्रुतज्ञान के शिक्षण में तत्पर और व्रतों की भावना में निपुण है, उसे शैक्ष कहते हैं। उसका वैयावृत्त्य करना । ५. ग्लान - वैयावृत्त्य - रोगी का वैयावृत्त्य करना ।
६. गण- वैयावृत्त्य - स्थविरसंतति की संस्थिति को गण कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना ।
७. कुल - वैयावृत्त्य - दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य - परम्परा कुल कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना ।
८. संघ - वैयावृत्त्य - श्रमण-समूह का वैयावृत्त्य करना ।
९. साधु- वैयावृत्त्य - चिरकाल से प्रव्रजित साधक को साधु कहा जाता है। उसका वैयावृत्त्य करना ।
१०. समनोज्ञ - वैयावृत्त्य - सांभोजिक का वैयावृत्त्य करना । ३. आचार्य आदि के वैयावृत्त्य से महानिर्जरा पावयणी खलु जम्हा, आयरिओ तेण तस्स कुणमाणो । महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि ॥ (व्यभा २६३२)
आचार्य प्रावचनिक - द्वादशांग की वाचना देने वाले होते हैं, अत: उनका वैयावृत्त्य करने वाला साधु तथा दशविध वैयावृत्त्य करने वाला साधु महानिर्जरा करता है.
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* वैयावृत्त्य के परिणाम
द्र श्रीआको १ वैयावृत्त्य
• वाचना द्वारा महान् वैयावृत्त्य
इदं तु महत्प्रवचनस्य वैयावृत्त्यं यत् सूत्रार्थप्रदानादि (व्यभा ६९४ की वृ)
करोति ।
और अर्थ वाचना देता है, वह जिनप्रवचन का महान् वैयावृत्त्य करता है।
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वैयावृत्त्य
४. श्रुतधर - वैयावृत्त्य : निर्जरा का तारतम्य "दुवालसंगं पवयणं तु ॥ तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निज्जरा तेसिं ...... सुत्तावासगमादी, चोहसपुव्वीण तह जिणाणं च ।
तं
.....दशवैकालिक श्रुतधरवैयावृत्त्यकरस्तस्यावश्यकसूत्रधरवैयावृत्त्यकरान् यथोत्तरं महानिर्जरास्तावदवसेयो यावत् त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्त्यकराच्चतुर्दशपूर्वधरवैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः । तदुभयचिन्तायां सूत्रवैयावृत्त्य - करादर्थवैयावृत्त्यकरो महर्द्धिको नवरं निशीथकल्पव्यवहारार्थधराणां वैयावृत्त्यकरात् कालिक श्रुतवैयावृत्त्यकरो महानिर्जरः । (व्यभा २६२९ - २६३१ वृ) जो प्रवचन - द्वादशांग (गणिपिटक) का अध्ययन करते हैं, उनका वैयावृत्त्य करने वालों के महान् कर्मनिर्जरा होती है ।
आवश्यक सूत्रधर से चतुर्दशपूर्वीपर्यंत का वैयावृत्त्य करने से उत्तरोत्तर महान् निर्जरा होती है। यथा - आवश्यकसूत्रधर के वैयावृत्त्य की अपेक्षा दशवैकालिक श्रुतधर के वैयावृत्त्य से विपुल निर्जरा होती है। त्रयोदशपूर्वी के वैयावृत्त्य की अपेक्षा चतुर्दशपूर्वी के वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा होती है ।
सूत्रधरवैयावृत्त्यकर से अर्थधरवैयावृत्त्यकर महर्द्धिक (महान्) है । केवल निशीथ - कल्प- व्यवहार के अर्थधर के वैयावृत्त्य की अपेक्षा कालिक श्रुतधर के वैयावृत्त्य से महान् निर्जरा होती है।
श्रुतज्ञानी की अपेक्षा जिन ( अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, केवली) के वैयावृत्त्य से महती निर्जरा होती है।
५. गुणवत्ता और भावधारा के आधार पर निर्जरा
गुणभूट्ठे दव्वे, जेण य मत्ताहियत्तणं भावे । इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो निज्जरं विउलं ॥ सुतवं अतिसयजुत्तो सुहोचितो तथ वि तवगुणुज्जुत्तो । जो सो मणप्पसादो, जायति सो निज्जरं कुणति ॥ निच्छयतो पुण अप्पे, जस्स वि वत्थुम्मि जायते भावो । तत्तो सो निज्जरगो, ' (व्यभा २६३४, २६३६, २६३७ )
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जो जितने अधिक गुणों से संपन्न होता है, उसकी सेवा के लिए परिणामधारा भी उतनी ही अधिक विशुद्ध होती है ।
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