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आगम विषय कोश- २
पियधम्मो दढधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो य । अज्जं गिलाणियं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू ॥ सो परिणामविहिण्णू इंदियदारेहिं संवरियदारो । जं किंचि दुब्भिगंधं, सयमेव विगिंचणं कुणति ॥ गुज्झंग-वदण दडुं ।
साहरति ततो दिट्ठि, न य बंधति दिट्ठिए दिट्ठि ॥ धिइ-बलजुत्तो वि मुणी, सेज्जातर - सण्णि- सिज्झगादि जुतो । वसति परपच्चयट्ठा, सलाहणट्ठा य अवराणं ॥ सो निज्जराए वट्टति, कुणति य आणं अणंतणाणीणं । स बितिज्जओ कहेती, परयिट्टेगागि वसमाणो ॥ (बृभा ३७७४-३७७६, ३७८३, ३७८४) जो साधु प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, मितभाषी और कुतूहलरहित होता है, वही ग्लान साध्वी की परिचर्या कर सकता है।
शुभ पुद्गल भी अशुभ हो जाते हैं और अशुभ पुद्गल भी संस्कार विशेष से या सहज ही शुभ हो जाते हैं - वह पुद्गलों की इस परिणमनविधि को जानता है तथा अपनी इन्द्रियों का संवरण करता है। वह दुर्गंधयुक्त उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, कफ आदि का परिष्ठापन करता है, स्त्री के सभी गुप्तांगों से दृष्टि का संहरण करता है तथा स्त्री की दृष्टि से अपनी दृष्टि नहीं मिलाता।
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धृति - बलसम्पन्न मुनि भी साध्वी की परिचर्या के लिए उसकी वसति में रहे तो अकेला न रहे। गृहस्थों में प्रतीति उत्पन्न करने के लिए शय्यातर या श्रावक या सहवासी को साथ में रखे। इससे लोग साधुओं की प्रशंसा भी करते हैं - धन्य हैं ये साधु, जिनका ऐसा सुदृष्ट धर्म है।
अकेला न रहता हुआ वह साधु विपुल निर्जरा करता है, तीर्थंकर की आज्ञा की आराधना करता है। जो उसके पास दूसरा व्यक्ति है, उसे वह धर्मकथा सुनाता है। यदि अकेला रहता है तो पूरी रात परिवर्त्तना (गाथाओं की स्वाध्याय) करता I ७. वैयावृत्त्य के अनर्ह - अर्ह
अलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोह- माण- माय लोहिल्लं । कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा ॥ एयद्दोसविमुक्कं, कडजोगिं नायसीलमायारं । गुरुभत्तिमं विणीयं, वेयावच्चं तु कारिज्जा ॥ (बृभा १५९२, १६०१ )
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वैयावृत्त्य
दस प्रकार के व्यक्तियों को वैयावृत्त्य में नियोजित नहीं करना चाहिए - १. आलसी २. बहुभक्षी ३. स्वपनशील ४. तपस्वी ५. क्रोधी ६. अभिमानी ७. मायावी ८. लोभी ९. कुतूहलप्रिय १०. सूत्रार्थ में प्रतिबद्ध । (द्र स्थापनाकुल)
जो आलस्य आदि दोषों से मुक्त, कृतयोगी, शीलसामाचारीसम्पन्न, गुरुभक्ति में तत्पर और विनीत हो, उसे भिक्षाटन आदि रूप वैयावृत्त्य में नियोजित करना चाहिए ।
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• भिक्षासंबंधी वैयावृत्त्य के अनर्ह
जे भिक्खू अणलेणं वेयावच्चं कारेति कारेंतं वा सातिज्जति ॥ (नि ११/८७) वेयावच्चे अणलो, चउव्विहो होइ आणुपुव्वीए । सुत्तत्थ अभिगमेण य, परिहरणा एव नायव्वा ॥ (निभा ३७७३ )
जो भिक्षु अयोग्य से वैयावृत्त्य करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है।
चार प्रकार के व्यक्ति (भिक्षा की दृष्टि से ) वैयावृत्त्य के अयोग्य होते हैं - १. सूत्रतः - जिसने दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन 'पिण्डैषणा' नहीं पढ़ा।
२. अर्थतः - जिसने पिण्डैषणा का अर्थ नहीं सुना। ३. अभिगम - जिसकी वैयावृत्त्य में श्रद्धा / रुचि नहीं है। ४. परिहरण - जो अकल्पनीय का वर्जन नहीं करता । ८. वैयावृत्त्य के तेरह स्थान : एकांत निर्जरा स्थान ....... आयरियउवज्झाए, थेरे य तवस्सि सेहे य ॥ अतरंत कुलगणे या, संघे साधम्मिवेयवच्चे य । एतेसिं तु दसण्हं, कातव्वं तेरसपदेहिं ॥ भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेहण पायमच्छिमद्धाणे । राया तेणं दंडग्गहे य गेलण्ण मत्ते य ॥ तीसुत्तरसयमेगं ठाणाणं वण्णितं तु सुत्तम्मि | वेयावच्चसुविहितं, नेम्मं निव्वाणमग्गस्स ॥ ववहारे दसमए उ, दसविह साहुस्स जुत्तजोगस्स । एगंतनिज्जरा से, न हु नवरि कयम्मि सज्झाए ॥
.....पाए ति पादप्रमार्जनेन यदि वा औषधपानेन..... अक्षिरोगिणो भेषजप्रदानेन । सुविहितानां प्रापणं निर्वाणमार्गस्य । (व्यभा ४६७५-४६७७, ४६८८, ४६८९ वृ)
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