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आगम विषय कोश-२
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विहार
शास्त्रप्रसिद्धाः शब्दास्तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथातथा व्यवह्रिय- अभिनिष्क्रमण आदि से संबंधित भूमियों में विहरण करता हुआ माणा देशदर्शनं कुर्वता। (बृभा १२२३-१२२५ वृ) जिनवरों की जन्मभूमि आदि को साक्षात् देखता है, तब निःशंकता ___ यद्यपि शिष्य चौबीस वर्षों में सूत्र और उसके अर्थ को के का
के कारण उसका सम्यग दर्शन अतीव विशद्ध हो जाता है। सम्यक रूप से अधिगत कर लेता है, फिर भी देशीभाषा के
२. स्थिरीकरण-विहरणशील भव्य आचार्य को देखकर तत्रस्थ परिज्ञान के लिए देशदर्शन अवश्य करना चाहिए। इससे शास्त्रों में
संविग्न मनियों में संवेग उत्पन्न होता है। वह स्वयं सुविहित, समागत देशी शब्द प्रत्यक्ष हो जाते हैं। यथा
अप्रमत्त तथा विशुद्धलेश्य होने से तत्रस्थ सुविहित, अप्रमत्त तथा उन्दुक-स्थान। सिय--१. भवति । २. आशंका । ३. भजना। वीसुं
विशुद्ध लेश्या वाले मुनियों का स्थिरीकरण करता है।
३. देशीभाषा कौशल-मगध, मालव, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में विष्वक्, पृथक् । एरक-गुन्द्रा, भद्रमुस्तक। पयः-पिच्चं, नीरं।। जिस अर्थ का अनेक बार अभ्यास किया है. उस अर्थ
भिन्न-भिन्न देशी भाषाएं हैं। वहां विहरण करने वाला मुनि उनको प्रत्यक्षतः उपलब्ध न करना वैसा ही है, जैसा कि जात्यन्ध
उन देशी भाषाओं में निष्णात हो जाता है और तब वह नाना व्यक्ति के लिए स्फुट चन्द्रमा का भी साक्षात् न होना।
देशीभाषाओं में निबद्ध आगम सूत्रों के उच्चारण तथा अर्थ-कथन जो शिष्य आचार्य पद के योग्य नहीं है. उसके लिए
में कुशल हो जाता है। वह मुनि अभाषिक (अव्यक्तवर्णविभागभाषी देशदर्शन वैकल्पिक है, किन्तु जो शिष्य आचार्यपद के योग्य है,
अथवा स्वदेशीयभाषाभाषी) लोगों को उनकी भाषा में धर्म का
उपदेश देता है और उन्हें प्रतिबुद्ध कर प्रव्रजित भी कर लेता है। वह सूत्रार्थग्रहण के अनंतर नियमतः पर्यटन करता है। वह जघन्यतः आत्मतृतीय होता है (उसके साथ कम से कम
शिष्य सोचते हैं-ये आचार्य हमारी भाषा में बोलते हैं, अत: हमारे
हैं। वे आचार्य के प्रति प्रीति से बंध जाते हैं। दो साधु और होते हैं)। वह देशाटन से वर्षावास और ऋतुबद्धकाल के योग्य क्षेत्रों तथा आर्य-अनार्य क्षेत्रों को जान लेता है।
४. अतिशय उपलब्धि-पर्यटक मनि भिन्न-भिन्न विद्याओं के
पारगामी आचार्य तथा बहुश्रुत मुनियों से मिलता है। उसे तीन ० देशाटन से लाभ, जनपदपरीक्षा
प्रकार के अतिशयों की उपलब्धि होती है-१. सूत्रार्थ अतिशय दंसणसोही थिरकरण देस अइसेस जणवयपरिच्छा।
२. सामाचारी अतिशय तथा ३. विद्या-योग-मंत्र-विषयक अतिशय। जम्मण-निक्खमणेसु य, तित्थयराणं महाणुभावाणं।
भावी आचार्य देशाटन कर रहे हैं-यह सुनकर तथा उनको देखकर इत्थ किर जिणवराणं, आगाढं दंसणं होई॥
अन्यान्य आचार्यों के शिष्य भी सूत्रार्थग्रहण में पराक्रम करने लगते संवेगं संविग्गाण जणयए सुविहिओ सुविहियाणं।
हैं। गृहस्थ भी उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। आउत्तो जुत्ताणं, विसुद्धलेसो सुलेस्साणं॥
५. जनपद-परीक्षा-विविध प्रदेशों की सभ्यता-संस्कृति का ज्ञान। नाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स। अभिलावअत्थकुसलो, होइ तओ णेण गंतव्वं ॥
अब्भे नदी तलाए, कूवे अइपूरए य नाव वणी। कहयति अभासियाण वि, अभासिए आवि पव्वयावेइ।।
मंस-फल-पुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत्त कप्प विही। सव्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सभासिओ णे ति॥ सज्झाय-संजमहिए, दाणाइसमाउले सुलभवित्ती। भवियाइरिओ देसाण दंसणं कणड एस डय सोउ। कालुभयहिए खेत्ते, जाणइ पडणीयरहिए य॥ अन्ने वि उज्जमंते, विणिक्खमंते य से पासे॥
_ (बृभा १२३९, १२४०) सुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज्ज-जोगाई। ..... मुनि देशदर्शन करता हुआ जनपदों की परीक्षा कर लेता
(बृभा १२२६-१२३०, १२३४, १२३५) है। यथा-लाट देश में वर्षा के पानी से तथा सिन्धु देश में नदी के देशाटन से मुख्यतः पांच लाभ होते हैं
पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। द्रविड़ में तालाब के पानी से १. दर्शनविशुद्धि-मुनि अतिशायी अचिन्त्यप्रभावी अर्हतों की जन्म, तथा उत्तरापथ में कूप के पानी से सिंचाई होती है।
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