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आगम विषय कोश-२
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विहार
० द्रव्य विहार-आहार, उपधि आदि द्रव्यों की सम्प्राप्ति के लिए पुरतो य पासतो पिट्ठतो य वसभा हवंति अद्धाणे। अगीतार्थ और पार्श्वस्थ का विहार। अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) गणवइपासे वसभा, मिगमज्झे नियम वसभेगो।। मुनि का विहार भी द्रव्य विहार है।
वसभा सीहेस मिगेस चेव थामावहारविजढा उ। ० भाव विहार-इसके दो प्रकार हैं-१. गीतार्थ साधओं का
जो जत्थ होइ असहू, तस्स तह उवग्गह कुणंति॥ विहार। २. गीतार्थनिश्रित विहार। इनके अतिरिक्त तीसरा विहार भत्ते पाणे विस्सामणे य उवगरण-देहवहणे य। अर्हतों द्वारा अनुज्ञात नहीं है। भावविहार के दो अन्य प्रकार हैं- थामावहारविजढा, तिन्नि वि उवगिण्हए वसभा॥ १. असमाप्तकल्प (जिसके पास पूर्ण सहयोगी न हों)।
सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था। २. समाप्तकल्प-इसके दो भेद हैं-जघन्य-तीन गीतार्थ मनियों खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे॥ का विहार और उत्कृष्ट-बत्तीस हजार मुनियों का विहार।
(बृभा २९०१-२९०४, ३०९७) २. गीतार्थ : विहारकल्पिक
मार्ग में चलते समय सबसे आगे मृग परिषद् के मुनि जिणकप्पिओ गीयत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो। (अगीतार्थ) चलें, मध्य में वृषभ मुनि (समर्थ गीतार्थ) तथा पीछे गीयत्थे इड्डिदुर्ग, सेसा गीयत्थनीसाए॥ सिंह परिषद् के मुनि (गीतार्थ) चलें। अन्य आचार्यों का मत आयरिय गणी इड्डी, सेसा गीता वि होंति तन्नीसा। है-वृषभ पीछे चलते हैं क्योंकि अगीतार्थ-गीतार्थ या बाल-वृद्ध गच्छगय निग्गया वा, थाणनिउत्ताऽनिउत्ता वा ॥ साधुओं में जो परिश्रांत अथवा भूख-प्यास से पीड़ित हो जाते हैं तो आयारपकप्पधरा, चउदसपुव्वी अ जे अ तम्मज्झा। उनकी रक्षा करने वाले वृषभ पीछे चलते हैं अथवा बाल-वृद्ध तन्नीसाए विहारो, सबाल-वुड्डस्स गच्छस्स॥ मुनियों के आगे, पीछे और पार्श्व में वृषभ चलते हैं। आचार्य के
(बृभा ६९१-६९३) पार्श्व में नियमतः वृषभ होते हैं । मृग परिषद् वाले मुनियों के मध्य जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिक, प्रतिमाप्रतिपन्नक और भी नियमतः एक वृषभ साधु होता है। यथालन्दिक निश्चित रूप से गीतार्थ होते हैं (क्योंकि ये जघन्यतः वृषभ साधु अपने बल-वीर्य का गोपन नहीं करते हुए, नौवें पूर्व के अन्तर्गत आचार नामक तृतीय वस्तु के ज्ञाता होते हैं) मृग या सिंह परिषद् का कोई सदस्य मुनि जब जहां असहिष्णु तथा गच्छ में ऋद्धिद्विक-आचार्य और उपाध्याय—ये नियमतः हो जाता है, उसका उसके अनुरूप उपग्रह करते हैं। भूख लगने गीतार्थ होते हैं अतः इनका विहार स्वतंत्र रूप से होता है। शेष । पर आहार और प्यास लगने पर पानी लाकर देते हैं। मार्ग में मुनि जो गच्छगत हैं अथवा गच्छनिर्गत (अशिव आदि कारणों से थकने पर उनकी विश्रामणा करते हैं । जो साधु अपने उपकरणों एकाकी), प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक आदि पदों पर नियुक्त । या शरीर को वहन करने में असमर्थ है, उसको, उसके उपकरणों हैं अथवा सामान्य साधु-ये सब गीतार्थ होने पर भी आचार्य- को वृषभ साधु वहन करते हैं । इस प्रकार अनिगूहित बल-वीर्य उपाध्याय की निश्रा में विहार करते हैं. स्वतंत्र रूप से नहीं। वाले वृषभ मुनि मृग, सिंह और वृषभ-तीनों परिषदों का गीतार्थ के तीन प्रकार हैं
उपकार करते हैं। १. जघन्य गीतार्थ-आचारप्रकल्प (निशीथ) के धारक।
चोर आदि का भय होने पर वृषभ स्वरभेद और वर्णभेद २. मध्यम गीतार्थ-कल्प, व्यवहार, दशाश्रतस्कंध आदि के ज्ञाता। करने वाली गुटिका के द्वारा स्वर और वर्ण भेद करके या वेश ३. उत्कृष्ट गीतार्थ-चौदहपूर्वी।
बदल कर या आरक्षक होकर साधु-साध्वियों की सुरक्षा करते हैं। _इनकी निश्रा में आबाल-वृद्ध साधु विहरण करते हैं। ० श्रमणी-रक्षक वृषभ की अर्हता ३. यात्रापथ में वृषभ के कर्त्तव्य
कयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधिणो थिरसरीरा। पुरतो वच्चंति मिगा, मझे वसभा उ मग्गओ सीहा। जियनिहिंदिय दक्खा, तब्भूमा परिणयवया य॥ पिट्ठओं वसभऽन्नेसिं, पडियाऽसहुरक्खगा दोण्हं॥
(बृभा २४४५)
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