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विहार
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आगम विषय कोश-२
वध-बंध-छेद-मारण, निव्विसिय धणावहार लोगम्मि।
० श्रमणी-रक्षक वृषभ की अर्हता भवदंडो उत्तरिओ, उच्छहमाणस्स तो बलिओ॥ * उपकरण सहित विहार
द्र उपधि (व्यभा २५५४-२५५७) | ४. पादविहारी के प्रकार : उपदेश आहिण्डक... राजा ने पूछा-भंते! लौकिक विनय बलवान है या लोकोत्तर |५. भावी आचार्य के लिए देशाटन अनिवार्य विनय? आचार्य ने कहा-लोकोत्तर विनय बलवान् है।
० देशाटन से लाभ, जनपद-परीक्षा
द्र उपसम्पदा राजा ने परीक्षा करने की इच्छा से पहले सुन्दर आकृति
* उपसम्पदा"देशाटन
६. आचार्य के प्रस्थान की विधि वाले व्यक्ति से कहा-जाओ, जानकारी कर बताओ, गंगा किस
७. संघाटक (मुनिद्वय ) का विहार कब? कैसे? ओर बहती है? वह वहां से प्रस्थित नहीं हुआ। वहीं खड़े
० संघाटक-विहार की अर्हता खड़े उसने कहा-राजन्! यह बात तो सामान्य व्यक्ति भी
८. एकाकी विहरण के दोष जानता है कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। फिर राजा ने अविनीत
| ९. मुनि और शुद्ध सार्थ दीखने वाले श्रमण को निर्देश दिया। आचार्य ने उसे भेजा। वह
* यात्रापथ में उपयोगी सार्थ
द्र सार्थवाह आचार्य की आज्ञा लेकर गया, लौटकर उसने कायोत्सर्ग कर गुरु * पथ में भी शय्यातर
द्र शय्यातर को निवेदन किया
|१०. रात्रि में विहार-निषेध __ भंते ! मैं आपकी अनुमति लेकर गंगातट पर गया, सूर्य को |११. ऋतुबद्धिक क्षेत्र और मासकल्प विहार देखा, क्योंकि सूर्य से सही दिशाबोध हो जाता है। फिर तरंगों के ० नवकल्पी विहार साथ पूर्वाभिमुख बहते तृणों को देखा। दिग्मूढ़ता न हो, इसके लिए
* वर्षावास में विहार निषेध, अपवाद द्र पर्युषणाकल्प दो-तीन व्यक्तियों से भी पूछा। उन्होंने भी यही बताया-गंगा पूर्व
* जिनकल्प-स्थविरकल्प : विहारकाल द्र स्थविरकल्प दिशा की ओर बहती है।
१२. अराज्य-द्विराज्य-वैराज्य-गमन-निषेध * आर्यक्षेत्र में विहरण क्यों?
द्र आर्यक्षेत्र राजा ने पुनः जिज्ञासा की-गुरुदेव! लोक में जो हमारी
* आर्यकालक का स्वर्णभूमि में गमन द्र अनुयोग आज्ञा का उल्लंघन करता है, उसका वध, बन्धन, छेदन आदि
* मुनि की नौकाविहार-विधि
द्र नौका किया जाता है। किसी को मृत्युदण्ड, किसी को देशनिकाला और किसी का धन-अपहरण किया जाता है। फिर भी कई लोग आज्ञा १. द्रव्य-भाव विहार और गीतार्थ की अवमानना कर देते हैं। आपके यहां ऐसे कठोर दण्डों का भय ...."विविधपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ॥ नहीं है, फिर भी प्रयत्नपूर्वक अक्षरशः आज्ञा की अनुपालना की आहारादीणट्ठा, जो य विहारो अगीत-पासत्थे। जाती है। इसका क्या कारण है?
जो यावि अणुवउत्तो, विहरति दव्वे विहारो उ॥ आचार्य ने कहा-श्रमण को भवदण्ड का भय है। वह गीतत्थो तु विहारो, बितिओ गीतत्थनिस्सितो होति। जानता है कि आचार्य की आज्ञा का भंग करने वाला इहभव और एत्तो ततियविहारो नाणुण्णातो जिणवरेहिं ।। परभव दोनों में दु:खी होता है। अतः वह विनयबली होता है- सो पुण होती दुविधो, समत्तकप्पो तधेव असमत्तो। आंतरिक उत्साह के साथ उद्यम-पराक्रम करता है।
तत्थ समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होति॥
गीतत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहन्नतो होति। विहार-पदयात्रा, देशाटन।
बत्तीससहस्साई, हवंति उक्कोसओ एस॥ १. द्रव्य-भाव विहार और गीतार्थ
(व्यभा ९९५-९९७, १०१०, १०११) २. गीतार्थ : विहारकल्पिक
विहार का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-विविध प्रकारों से कर्मरजों ३. यात्रापथ में वृषभ के कर्तव्य
का हरण करने वाला।
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