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वेद
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आगम विषय कोश-२
अप्रतिसेवी हों तो प्रव्राजनीय हैं-वर्धित, चिप्पित, मंत्र उपहत, के भी पुत्र को देखने मात्र से दूध का प्रस्रवण होने लगता है। आम्र औषधि उपहत, ऋषिशप्त और देवशप्त।
को देखने मात्र से मुख से लार टपकने लगती है, इसी प्रकार स्त्रीदससु वि मूलायरिए, वयमाणस्स वि हवंति चउगुरुगा... पुरुषों के साथ रहने से नपुंसक के वेद का उदय होता है और उसमें
..."दशापि नपुंसकान् यः प्रव्राजयति"।"वर्द्धितादीनां भोग की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। भुक्तभोगी अथवा षण्णामपि प्रतिसेवकानां प्रव्राजने आचार्यस्य यो वदति अभुक्तभोगी मुनि उस नपुंसक की अभिलाषा कर सकते हैं। अतः 'प्रव्राजयत' तस्यापि चतुर्गुरुकम्। (बृभा ५१६८ व) नपुंसक को दीक्षित करने का निषेध किया गया है।
पंडक से आसिक्त पर्यन्त दश प्रकार के नपंसकों को प्रवजित ९. पंडक आदि की दीक्षा के अपवाद...... करने वाला आचार्य मूल प्रायश्चित्त का तथा वर्द्धित आदि छह असिवे ओमोयरिए, रायड्ढे भए व आगाढे। प्रकार के प्रतिसेवी नपुंसकों को प्रवृजित करने वाला आचार्य चतुर्गुरु गेलन उत्तिमढे, नाणे तह दंसणचरित्ते॥ प्रायश्चित्त का भागी होता है। इन सबकी प्रव्रज्या का अनुमोदन एएहि कारणहि, आगाढेहिं तु जो उ पव्वावे। करने वाला भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
पंडाईसोलसगं, कए उ कज्जे विगिंचणया॥ ० नपुंसक के दीक्षानिषेध का हेतु
(बृभा ५१७२, ५१७५) थी-परिसा जह उदयं, धरेंति झाणोववास-णियमेहिं। यह पंडक प्रव्रजित होकर अशिव का उपशमन करेगा, एवमपुमं पि उदयं, धरिज्ज जति को तहिं दोसो॥ दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष, स्तेनभय, रोग, अनशन और ज्ञान-दर्शन-चारित्र अहवा ततिए दोसो, जायद इयरेस किं न सो भवति। में सहयोगी होगा-इन आगाढ कारणों से सोलह प्रकार के एवं ख नत्थि दिक्खा, सवेययाणं न वा तित्थं ॥ नपुंसकों में से किसी को भी दीक्षा जा सकती है किन्तु प्रयोजन थी-पुरिसा पत्तेयं, वसंति दोसरहितेसु ठाणेस। समाप्ति पर उसको विसर्जित कर देना चाहिए। संवास फास दिट्ठी, इयरे वत्थंबदिटुंतो॥
कडिपट्टए य छिहली, कत्तरिया भंड लोय पाढे य। (बृभा ५१६९-५१७१)
धम्मकह सन्नि राउल, ववहार विगिंचणा विहिणा॥ शिष्य ने गुरु से पूछा-जैसे स्त्री और पुरुष ध्यान, उपवास
वीयार-गोयरे थेरसंजुओ रत्ति दूरे तरुणाणं।
गाहेह ममं पि ततो, थेरा गाहेंति जत्तेणं॥ तथा नियमों में उपयुक्त रहकर वेद के उदय को धारण करते हैं, उसी प्रकार नपुंसक भी वेद के उदय को धारण करता है, तब उसे
वेरग्गकहा विसयाण णिंदणा उट्ठ-निसियणे गुत्ता। दीक्षा देने में क्या दोष है? यदि आप कहते हैं-नपुंसक वेद के
चुक्क-खलिएसु बहुसो, सरोसमिव चोदए तरुणा॥ उदय से चारित्र का भेदन होता है, तब स्त्री और पुरुष वेद के उदय
(बृभा ५१७७, ५१८०, ५१८१) से वह दोष क्यों नहीं होगा?
पण्डक को यदि दीक्षा देनी पडे तो उसे कटिपटक धारण नौवें गणस्थान पर्यंत संसारी प्राणी सवेदी होते हैं। उनमें करवाना चाहिए। उसके शिर पर शिखा हो। यदि वह शिखा नहीं दोषदर्शन करने से न दीक्षा होगी और न तीर्थ की परम्परा चलेगी। चाहता हो तो कैंची या क्षुर से मुण्डन करना चाहिए अथवा लोच भी
आचार्य ने कहा-स्त्री प्रव्रजित होकर स्त्रियों के मध्य रहती किया जा सकता है। उसे परतीर्थिक के ग्रन्थों का अध्ययन करवाना है। पुरुष प्रवजित होकर पुरुषों के मध्य रहता है। ये दोनों दोषरहित चाहिए। कार्य सम्पन्न होने पर उसके सामने धर्मकथा करनी चाहिए, स्थानों में रहते हैं। पंडक यदि स्त्रियों अथवा पुरुषों के मध्य रहता जिससे वह स्वयं लिंग का परित्याग कर दे। यदि वह लिंग छोड़ने के है तो उस संवास में स्पर्श से और दृष्टि से अनेक दोष उत्पन्न हो लिए तैयार न हो तो श्रावकों के द्वारा प्रेरित करवाना चाहिए। फिर भी सकते हैं। इस संदर्भ में वत्स और आम्र का दृष्टांत है
तैयार न हो तो राजकुल में कहना चाहिए। अंत में न्यायालय में बालक माता को देखकर स्तनपान की इच्छा करता है। माता विधिपूर्वक उसका विसर्जन करना चाहिए।
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