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वेद
तीनों वेदों के तीन-तीन विकल्प करणीय हैं- पुरुष पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक वेद - इन तीनों वेदों का वेदन करता है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक के भी तीनों वेदों का उदय होता है । ( एक जीव एक समय में एक ही वेद का वेदन करता है, जैसे - स्त्रीवेद का अथवा पुरुषवेद का । उदय प्राप्त स्त्रीवेद के कारण स्त्री पुरुष की इच्छा करती है और उदय प्राप्त पुरुषवेद के कारण पुरुष स्त्री की इच्छा करता है । - भ २/८० )
• वेद के उदय में अवस्था प्रमाण नहीं
न वओ इत्थ पमाणं, न तवस्सित्तं सुयं न परियाओ । अवि खीणम्मि वि वेदे, थीलिंगं सव्वहा रक्खं ॥ ........अत एव स्त्रीकेवली यथोक्तामार्थिकोपकरणप्रावरणादियतनां करोति । (बृभा २१०० वृ)
वेद के उदय में न वार्धक्य आदि अवस्था प्रमाण है, न तप, न श्रुत का अवगाहन और न दीर्घ संयमपर्याय ही प्रमाण है। वेद के क्षीण होने पर भी स्त्रीलिंग सर्वथा रक्षणीय है । इसीलिए स्त्रीकेवली साध्वीयोग्य उपकरणों से प्रावृत हो अपनी रक्षा करती है।
(अनुत्तरविमान के देवों में वेदमोह का उदय नहीं होता और वह क्षीण भी नहीं होता, किन्तु उपशांत रहता है। —भ ५/१०७
ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देव अप्रवीचार होते हैं । उनमें मोह अल्प होता है, वेदाग्नि मंद होती है, इसलिए वे सहज ही परम सुख से तृप्त होते हैं। उनमें रूप आदि के भोग की आकांक्षा उत्पन्न नहीं होती । - तभा ४ / १० वृ) ४. नपुंसक के सोलह प्रकार
पंडए वाइए कीवे, कुंभी ईसालुए ति य । सउणी तक्कम्मसेवी य, पक्खियापक्खिते ति य ॥ सोगंधिए य आसित्ते, वद्धिए चिप्पिए ति य । मंतोसहिओवहते, इसिसत्ते देवसत्ते य ॥ (बृभा ५१६६, ५१६७)
नपुंसक के सोलह प्रकार हैं- १. पंडक २. वातिक ३. क्लीब ४. कुंभी—उत्कट मोहोदय से जिसका मेहन महाप्रमाण वाला हो । ५. ईर्ष्यालु - प्रतिसेवना करने वाले को देखकर जिसके मन में मैथुन की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है। उसका निरोध करने पर
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आगम विषय कोश- २
कालान्तर में जो नपुंसकत्व को प्राप्त हो जाता है। ६. शकुनि - गृहचटक की तरह अभीक्ष्ण प्रतिसेवी । ७. तत्कर्मसेवी - क्षरित वीर्य का सेवन करने वाला ।
८. पाक्षिकापाक्षिक - कृष्ण और शुक्ल — इन दोनों में से किसी एक पक्ष में मोह के तीव्र उदय का अनुभव करने वाला ।
९. सौगन्धिक - सागारिक की गंध को शुभ मानने वाला । १०. आसिक्त - स्त्री के शरीर में आसक्त ।
११. वर्द्धित - बाल्यकाल में जिसके वृषण निकाल दिए हों। १२. चिप्पित - उत्पन्न होते ही अंगुष्ठ, प्रदेशनी और मध्यमा से मलकर जिसके वृषणद्वय को नष्ट कर दिया गया हो । १३. मंत्र उपहत - मंत्र से उपहत वेद वाला । १४. औषधिउपहत — औषधि से उपहत वेद वाला । १५. ऋषि अभिशप्त - ऋषि के शाप से नपुंसकता को प्राप्त । १६. देव अभिशप्त - देव के शाप से नपुंसकता को प्राप्त व्यक्ति । ५. पंडक नपुंसक के लक्षण और प्रकार
महिलासहावो सर- वन्नभेओ, मेण्ढं महंतं मउता य वाया । ससद्दगं मुत्तमफेणगं च, एयाणि छ प्पंडगलक्खणाणि ॥ गती भवे पच्चवलोइयं च, मिदुत्तया सीयलगत्तया य । धुवं भवे दोक्खरनामधेज्जो, सकारपच्चंतरिओ ढकारो ॥ ..... पच्छन्न मज्जणाणि य, पच्छन्नयरं व णीहारो ॥ पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य।...... (बृभा ५१४४-५१४७)
पंडक नपुंसक के छह लक्षण हैं - १. महिला जैसा स्वभाव २, ३. स्वर तथा वर्ण स्त्री और पुरुष से विलक्षण, ४. प्रलंब लिंग, ५. मृदु वाणी, ६. सशब्द और फेनरहित सूत्र ।
पण्डक की गति मन्द होती है। वह अपने पार्श्व में और पीछे देखता हुआ चलता है। उसके शरीर की त्वचा कोमल और स्पर्श शीतल होता है। वह ' षष्ठ' इस द्वयक्षर नाम वाला होता है । वह स्नान और नीहार प्रच्छन्न स्थान में करता है, पुरुषों के बीच भयभीत और महिलाओं के बीच निर्भय रहता है तथा पीसना, पकाना, परोसना आदि स्त्रियोचित कार्यों में रस लेता है।
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