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आगम विषय कोश - २
तरमेव जहाभिलसियरूवविउव्वणसामत्थं, वज्जणिवाते वेयणोदीरणे वि अविलयत्तं । .......
गुणवरियं जं ओसहीण तित्त- कडुय कसाय-अंबिलमहुरगुणत्ताए रोगावणयणसामत्थं । एतं गुणवीरियं ।
चरित्तवीरियं णाम असेसकम्मविदारणसामत्थं, खीरादिलदुप्पादणसामत्थं च । समाहिवीरियं णाम एरिसं मणादिसमाहाणमुप्पज्जति जेण केवलमुप्पाडेति सव्वट्टसिद्धिदेवत्तं वा णिव्वत्तेति, अप्पसत्थमणादिसमाहाणेणं पुण अहे सत्तमणिरयाउयं णिव्वत्तेति ।
वीरियं दुविहं विओगायवीरियं च अविओगायवीरियं च । विओगायवीरियं जहा संसारावत्थस्स जीवस्स मणमादिजोगा वियोगजा भवंति । अविओगायवीरियं पुण उवओगो, असंखेज्जायपएसत्तणं च । .....
बालं असंजयस्स असंजमवीरियं । पंडितं संजतस्स संजमवीरियं । बालपंडितवीरियं सावगस्स संजमासंजम - वीरियं । करणवीरियं क्रियावीर्यं घटकरणक्रियावीर्यं पटकरणक्रियावीरियं । एवं जत्थ जत्थ उट्ठाणकम्मबलसत्ती भवति तत्थ तत्थ करणवीरियं अहवा करणवीरियं मणोवाक्कायकरणवीरियं । जो संसारीजीवो अप्पज्जत्तगो ठाणादिसत्तिसंजुत्तो तस्स तं लद्धिवीरियं भण्णति ।
.....ण हु वीरियपरिहीणो पवत्तते णाणमादीसु ।' ओय एवं तत सव्वेसुऽहीकारो । (निभा ४७, ४८ चू) वीर्य के पांच प्रकार हैं- भववीर्य, गुणवीर्य, चारित्रवीर्य, समाधिवीर्य और आत्मवीर्य ।
१. भववीर्य - नारक आदि भवों का वीर्य/सामर्थ्य | .० नारकभववीर्य - यंत्र, असि, कुंभी, चक्र, कंदु आदि में पकाने पर, शूल आदि से भेदन करने पर महान वेदना होती है, फिर भी नारक जीव विलीन नहीं होते - यह उनका भववीर्य है ।
० तिर्यंचभववीर्य - वृषभ में महान् भार वहन का, घोड़े में धावन का तथा शीत-उष्ण, क्षुधा पिपासा सहन करने का सामर्थ्य |
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मनुष्यभववीर्य - मनुष्य में सर्वचारित्र स्वीकार करने का सामर्थ्य । देवभववीर्य - देव पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त होते ही यथेष्ट रूपों की विक्रिया/विकुर्वणा करने में समर्थ होते हैं। वे वज्रनिपात होने पर भी नष्ट नहीं होते ।
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वीर्य
२. गुणवीर्य - औषधियों में तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल या मधुर गुण के कारण रोग अपनयन का सामर्थ्य ।
३. चारित्रवीर्य - अशेष कर्मविदारण का सामर्थ्य और क्षीरास्रव आदि लब्धि उत्पादन का सामर्थ्य ।
४. समाधिवीर्य - मन आदि का ऐसा समाधान उत्पन्न होता है, जिससे केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है अथवा सर्वार्थसिद्धविमान में देवत्व प्राप्त होता है । अप्रशस्त मन आदि के समाधान से सातवीं नरक भी प्राप्त हो सकती है।
५. आत्मवीर्य- इसके दो प्रकार हैं
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वियोगात्मवीर्य- जैसे संसारी जीव के मन आदि योग वियोगज होते हैं, उनका वीर्य ।
० अवियोगात्मवीर्य - उपयोग (चेतना का व्यापार), आत्मप्रदेशत्व । अथवा वीर्य के पांच प्रकार हैं
१. बालवीर्य - असंयमी का सामर्थ्य ।
२. पंडितवीर्य-संयमी का सामर्थ्य ।
३. उभयवीर्य - संयतासंयत ( श्रावक) का सामर्थ्य । ४. करणवीर्य - घटकरण, पटकरण आदि क्रियावीर्य ।
जहां-जहां उत्थान, कर्म, बल और शक्ति है, वहां-वहां करणवीर्य होता है । अथवा मन, वचन और काया- इन तीन करणों का वीर्य करणवीर्य है।
५. लब्धिवीर्य - जो स्थान आदि की शक्ति से संयुक्त, अपर्याप्तक संसारी जीव हैं, उनका वीर्य ।
असंख्येय
'वीर्यहीन व्यक्ति ज्ञान आदि किसी भी आचार में प्रवृत्त नहीं हो सकता।' अतः प्रत्येक आचार में वीर्य का प्रयोजन है ।
(सिद्ध अवीर्य होते हैं । वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से अंतराय कर्म का क्षायोपशमिक या क्षायिक भाव और शरीर नाम कर्म का उदय-इनके योग से वीर्य उत्पन्न होता है। सिद्धों में अंतराय कर्म का क्षायिक भाव है, किन्तु उनके शरीर नहीं है, इसलिए उन्हें अवीर्य कहा गया है । संसारी जीव के शरीर और अंतराय कर्म का क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक भावये दोनों होते हैं, इसलिए वे अवीर्य भी हैं और सवीर्य भी हैं। शैलेशी अवस्था में लब्धिवीर्य होता है, किन्तु करणवीर्य नहीं होता । मनुष्य लब्धिवीर्य से सवीर्य होता है और करणवीर्य से वह सवीर्य और अवीर्य दोनों होता है। लब्धिवीर्य एक क्षमता है,
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