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आगम विषय कोश-२
५०३
विनय
काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिण्हवणे। तं पुण ऽविरहे भासति, न चेव तत्तोऽपभासियं कुणति। वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो नाणविणओ उ॥ जोएति तहा कालं, जह वुत्तं होइ सफलं तु॥ निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य।। अमितं अदेसकाले, भावियमवि भासियं निरुवयारं । उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ॥ आयत्तो वि न गेण्हति, किमंग पुण जो पमाणत्थो॥ पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहिं तिहि य गुत्तीहिं। __ पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे । एस उ चरित्तविणओ, अट्ठविहो होति नायव्वो ॥ अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा॥
___ (व्यभा ६२-६५) माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासतो मुणेयव्वो। 'प्रतिरूप' शब्द के द्वारा चार विकल्प वाला विनय सूचित
अकुसलमणोनिरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव।। किया गया है--ज्ञान, दर्शन, चारित्र और प्रतिरूप विनय।
(व्यभा ६६-७७) ज्ञानविनय आठ प्रकार का है-१. काल २. विनय प्रतिरूप विनय के चार भेद हैं-कायविनय, वचनविनय, ३. बहुमान ४. उपधान ५. अनिहवन ६. सूत्र ७.अर्थ मनविनय और उपचार विनय। इन चारों के क्रमश: आठ, चार, दो ८. सूत्रार्थ।
और सात प्रकार हैंदर्शन विनय आठ प्रकार का है-१. नि:शंकित २. निष्कांक्षित कायविनय-इसके आठ प्रकार है-गुरु आदि के आने पर खड़े ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढदृष्टि ५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अभिग्रह (गुरु आज्ञा के अनुसार ७. वात्सल्य ८. प्रभावना।
कार्य करने का संकल्प करना), कृतिकर्म करना, शुश्रूषा करना, चारित्र विनय आठ प्रकार का है-पांच समिति और तीन सामने जाना और पहचाने जाना। गुप्ति- इनके द्वारा प्रणिधानयोगयुक्त होना चारित्र विनय है। वचनविनय-इसके चार प्रकार हैं-हितभाषण, मितभाषण, * काल, विनय आदि आचार और दृष्टांत
द्र आचार अपरुषभाषण तथा अनुवीचिभाषण (विमर्शपूर्वक बोलना)। २. प्रतिरूप विनय के प्रकार
१. हितभाषी-व्याधिग्रस्त मुनि व्याधिवर्धक आहार करता है, पडिरूवो खलु विणओ, काय-वइ-मणे तहेव उवयारे। ग्लान मुनि (अनशन आदि) देहविरुद्ध आचरण करता है। एक अट्ठ चउव्विह दुविहो, सत्तविह परूवणा तस्स॥ मुनि शक्तिसीमा का अतिक्रमण कर कोई कार्य करता है, अकालचर्या अब्भुट्ठाणं अंजलि-आसणदाणं अभिग्गह-किती य। करता है-जो मुनि इन कार्यों का निषेध करता है, वह इहलोक सुस्सूसणा य अभिगच्छणा य संसाहणा चेव॥ हितभाषी है। जो सामाचारी के आचरण में विषण्ण मुनि को हित-मित-अफरुसभासी, अणुवीइभासि स वाइओ विणओ।" प्रेरित-प्रोत्साहित करता है, उद्यमशील की प्रशंसा करता है, दारुण वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति। स्वभाव का वारण-निवारण करता है, वह परलोकहितभाषी है। आयासऽकालचरियादिवारणं एहियहियं तु॥ स्तब्धता (अनम्रता) आदि कायिकी चेष्टा, परुषता आदि वाचिक सामायारी सीदंत चोयणा उज्जमंत संसा य। चेष्टा, माया आदि मानसिक चेष्टा, अतिलोभता आदि चेष्टाएं दारुणसभावयं चिय, वारेति परत्थहितवादी॥ इहलोक और परलोक में अहितकारी होती हैं। - अस्थि पुण काइचिट्ठा, इह-परलोगे य अहियया होति। २. मितभाषी-जो मन्दस्वर में बोलता है, स्पष्ट और परिमित थद्ध-फरुसत्त-नियडी, अतिलुद्धत्तं व इच्चादी॥ बोलता है, मृदु बोलता है, मर्मवेधी वचन नहीं बोलता तथा तं पुण अणुच्चसई, वोच्छिण्ण मितं च भासते मउयं। अन्यापदेश से गुण-दोषों का वर्णन करता है, वह मितभाषी है। मम्मेसु अदूमंतो, सिया व परिपागवयणेणं॥.. ३. अपरुषभाषी-जो अनिष्ठुर, मृदु, हृदयग्राही और मनोज्ञ वचन तं पि य अफरुस-मउयं, हिययग्गाहिं सुपेसलं भणइ। बोलता है। वह प्रफुल्ल नयन और वदन से बोलता हुआ ऐसा नेहमिव उग्गिरंतो, नयण-मुहेहिं च विकसंतो॥ प्रतीत होता है, मानो आंतरिक स्नेह प्रकट हो रहा है।
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