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आगम विषय कोश-२
एगो
काकिणी। रूपमयं वा नाणकं भवति, यथा-भिल्लमाले अभिभूतो सम्मुज्झति, सत्थ-ऽग्गी-वादि-सावतादीहिं। द्रम्मः । पीतं नाम सुवर्णं तन्मयं वा नाणकं भवति, यथा- अच्चुदयअणंगरती,
वेदम्मि ......॥ पूर्वदेशे दीनारः । केवडिको नाम यथा तत्रैव पूर्वदेशे केतरा- पुव्वं वुग्गाहिता केती, नरा पंडितमाणिणो। भिधानो नाणकविशेषः।
(बृभा १९६९ वृ) णेच्छंति कारणं सोउं ....... । प्राचीन काल में अनेक प्रकार के सिक्कों का व्यवहार होता
अन्नाण कुतित्थिमते, कोहमाणातिमत्तेण वि चेतो। था। जैसे-कौड़ी आदि।
वियडेण व जो मत्तो, ण वेयती एस बारसमो॥ ० तांबे का सिक्का। जैसे दक्षिणापथ में काकिणी।
___ (निभा ३६९४-३६९८, ३७००, ३७०१) ० चांदी का सिक्का। जैसे भिल्लमाल में द्रम्म।
मूढ बारह प्रकार के हैं-१. द्रव्यमूढ २. दिशामूढ ३. क्षेत्र० सोने का सिक्का। जैसे पूर्वदेश में दीनार।
मूढ ४. कालमूढ ५. गणनामूढ ६. सादृश्यमूढ ७. अभिभवमूढ पूर्वदेश में केतर नामक सिक्का भी चलता था।
८. वेदमूढ ९. व्युद्ग्राहणामूढ १०. अज्ञानमूढ ११. कषायमूढ और दो साभरगा दीविच्चगा तु सो उत्तरापथे एक्को। १२. मत्तमूढ। दो उत्तरापहा पुण, पाडलिपुत्तो हवति एक्को ॥ १. द्रव्यमूढ-जो बाह्य-धूम आदि द्रव्यों से अथवा आभ्यंतरदो दक्खिणावहा तु, कंचीए णेलओ स दुगुणो य। धतूरा आदि खाने से मूर्च्छित होता है। अथवा जो पूर्वदृष्ट द्रव्य को
कसमणगरगो.............॥ घटिकावोद्र की भांति कालांतर में देखने पर भी नहीं जान पाता। 'द्वीपं नाम' सुराष्ट्राया दक्षिणस्यां दिशि समुद्रमवगाह्य
घटिकावोद्र दृष्टांत-एक अध्यापक की भार्या दुःशीला थी। एक यद् वर्त्तते तदीयौ द्वौ।"काञ्चीपुर्या द्रविडविषयप्रतिबद्धाया
बार वह अनाथमृतक को घर में डालकर, उसे जलाकर किसी धर्त एकः 'नेलकः' रूपको भवति। "कुसुमपुरं पाटलिपुत्रम
के साथ भाग गई। भर्ता अपनी भार्या के गुणों को याद करता हुआ भिधीयते।
(बृभा ३८९१, ३८९२)
उसकी अस्थियों को एक घड़े में डालकर गंगा की ओर प्रस्थित
हुआ। मार्ग में पत्नी ने उसे पहचान लिया। वह बोली-मैं वही ० सुराष्ट्रा की दक्षिण दिशा में समुद्र को अवगाहित कर जो द्वीप
हूं। मूढ ने कहा-तुम्हारे सब चिह्न उसके सदृश हैं किन्तु उसकी है, वहां के दो साभरक उत्तरापथ के एक रुपये के बराबर होते थे।
ये हड्डियां हैं, इसलिए मुझे प्रतीति नहीं है कि तुम वह हो। ० उत्तरापथ के दो रुपयों के तुल्य पाटलिपुत्र का एक रुपया था।
२. दिशामुढ-पूर्व को पश्चिम दिशा समझने वाला। ० दक्षिणापथ के दो रुपयों के तुल्य द्रविड़देशीय कांचीपुरी का एक
३. क्षेत्रमूढ-क्षेत्रसंबंधी विपर्यास करने वाला। नेलक (रुपया) होता था।
४. कालमूढ-दिन को रात और रात को दिन मानने वाला। • कांचीपुरी के दो रुपये पाटलिपुत्र के एक रुपये के तुल्य थे। ।
पिंडार दृष्टांत-एक ग्वाला किसी स्त्री में आसक्त था। वह मूढ-कार्य-अकार्य के विवेक से शून्य।
नींद से उठा और रात समझकर दिन में ही भैंसों को घर की दव्व दिसि खेत्त काले, गणणा सारक्खि अभिभवे वेदे। ओर संचरित कर स्वयं झाड़ियों के बीच से उस स्त्री के घर वुग्गाहणमण्णाणे, कसायमत्ते य मूढपदा॥ चला गया। लोगों ने कोलाहल किया-यह क्या? वह भ्रांत धूमादी बाहिरितो, अंतो धत्तूरगादिणा दव्वे। हो गया। जो दव्वं व ण याणति, घडियावोद्दो व दिलृ पि॥ ५. गणनामूढ-जो गणना करता हुआ कम या अधिक गिनता दिसिमूढो पुव्वावर, मण्णति खेत्ते उ खेत्तवच्चासं। है। उष्ट्रपाल के पास इक्कीस ऊंट थे। वह गिनती करता है दियरातिविवच्चासो, काले पिंडारदिटुंतो॥ तो बीस ऊंट होते हैं । पुनः गिनती की, बीस ही हुए। किसी ऊणाहियमण्णंतो, उट्टारूढो य गणणतो मूढो। अन्य व्यक्ति ने बताया-जिस पर तुम आरूढ हो, वह इक्कीसवां सारिक्खे थाणुपुरिसो
........॥ ऊंट है।
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