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आगम विषय कोश-२
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वाचना
गोपालको गवामग्रतो भूत्वा यदा पताकां दर्शयति तदा अभ्यंगन के बिना गाड़ी नहीं चलती, उसी प्रकार यदि कोई मुनि ता: शीघ्रतरं गच्छन्तीति श्रुतिः। (बृभा ५२०१-५२०३ वृ) । विकृति के बिना शरीर का निर्वाह नहीं कर पाता है और वह गुरु अविनीत श्रुतप्रदान के बिना भी अहंकारी होता है। श्रुतप्राप्ति
की अनुज्ञा से विधिपूर्वक विकृति का सेवन करता है तो उसे के पश्चात की तो बात ही क्या? घाव पर नमक डालने की भांति ।
वाचना दी जा सकती है। वह स्वयं नष्ट होकर दूसरों को नष्ट न करे, इस दृष्टि से वह
तपविहीन योग (श्रुत का उद्देशन आदि रूप व्यापार) नहीं वाचनीय नहीं है।
होता और तपस्या के बिना गृह्यमाण ज्ञान अभिलषित फल वाला ___ ग्वाला गायों के आगे आकर जब पताका दिखाता है, तब
नहीं होता, प्रत्युत विपुल अनर्थकारी होता है। जैसे-साधनहीन
विद्या फलित नहीं होती। उनकी गति में तीव्रता आ जाती है-यह श्रुति है। जैसे पताका स्वयं प्रस्थित गोयूथ के वेग को बढ़ाती है, वैसे ही श्रुतदान ..."कलह
देवयच्छलणा। अविनीत के अहं को बढ़ाता है।
परलोगम्मि य अफलं, खित्तम्मि व ऊसरे बीजं ॥ रोगों के उदय में दी जाने वाली औषधि रोगोत्पत्ति के वाइज्जंति अपत्ता, हणुदाणि वयं पि एरिसा होमो। कारणभूत द्रव्य की भांति नहीं होती, ऐसा नहीं है, वह होती ही ___इय एस परिच्चातो, इह-परलोगेऽणवत्था य॥ है, इसलिए उसको नहीं देना चाहिए। दुर्विनीत के लिए श्रुतऔषध
__ (बृभा ५२०८, ५२०९) अहितकर है, अत: वह देय नहीं है।
अविनीत को स्मारणा आदि द्वारा प्रेरित करने पर वह कलह विनय से अधीत श्रुतज्ञान इहलोक और परलोक में फलदायी
करता है। अपात्र को वाचना देने वाले प्रमत्त साधु को अभद्र होता है। अविनय से प्राप्त विद्या वैसे ही फलवती नहीं होती, जैसे
स्वभाव वाला देव छल सकता है। वैसे व्यक्ति की सुगति नहीं जल के बिना धान्य की निष्पत्ति नहीं होती।
होती। उसे बोधिलाभ नहीं मिलता। ऊषर भूमि में बोए बीज की सुत्त-ऽत्थे कहयंतो, पारोक्खी सिस्सभावमुवलब्भ।
भांति उसका सारा श्रम निष्फल होता है। अपात्र को वाचना देते अणुकंपाएँ अपत्ते, निजूहइ मा विणस्सिज्जा॥ लेखका सो वाचक मोचते हैं- अहो । अब तो हम भी ऐसे ही __'निर्वृहयति' अपवदति-न तेभ्यः सूत्रार्थो कथयति,
यूहयात अपवदात-न तभ्यः सूत्राथा कथयात, होंगे-अपात्र को वाचना देंगे। इस प्रकार अपात्र को वाचना देने श्रताशातनादिना मा विनश्येयुरितिकृत्वा। (बृभा २१४ वृ) वाले का इहलोक-परलोक परित्यक्त होता है. अनवस्था का प्रसंग
परोक्षज्ञानी गुरु अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना आता है-अविनय की परम्परा आगे बढ़ती है। देते समय शिष्यों के अभिप्राय को जानकर, जो शिष्य अपात्र हैं,
* अयोग्य को वाचना देने से हानि द्र श्रीआको १ शिक्षा उन पर अनुकंपा कर, उनको सूत्रार्थ की वाचना नहीं देते। क्योंकि अपात्र को वाचना देने से श्रुत की आशातना होती है और उससे २. पात्र-अपात्र विवेक : पात्र को भी वाचना नहीं शिष्यों का विनाश होता है।
जे भिक्खू अपत्तं वाएतिपत्तं ण वाएति..॥ रसलोलुताइ कोई, विगतिं ण मुयति दढो वि देहेणं।
(नि १९/१८, १९) अब्भंगेण व सगडं, न चलइ कोई विणा तीए॥ पुरिसम्मि दुव्विणीए, विणयविहाणं ण किंचि आइक्खे। अतवो न होति जोगो, ण य फलए इच्छियं फलं विज्जा। न वि दिज्जति आभरणं, पलियत्तियकण्णहत्थस्स॥ अवि फलति विउलमगुणं, साहणहीणा जहा विज्जा॥ मरेज्ज सह विज्जाए, कालेणं आगते विदू।
(बृभा ५२०४, ५२०६) अप्पत्तं च ण वातेजा, पत्तं च ण विमाणए॥ ' शरीर से दृढ़ होने पर भी रसलोलुपता के कारण जो विकृति अयसो पवयणहाणी, सुत्तत्थाणं तहेव वोच्छेदो। को नहीं छोड़ता है, वह वाचना के अयोग्य है। किन्तु जिस प्रकार पत्तं तु अवाएंते, मच्छरिवाते सपक्खे वा॥
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