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वाचना
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आगम विषय कोश-२
शृगालानुग-जो रजोहरणनिषद्या या औपग्रहिक पादपोंछन पर बैठकर अर्थश्रवण करते हैं, वे सभी अवश्य अपना-अपना कम्बल वाचना देते हैं।
निषद्याकारक को दे देते हैं और वह उनसे निषद्या की रचना करता ८. प्रवाचिका प्रवर्तिनी की अर्हता
है। यदि अनुयोगग्रहीता संख्या में कम हों तो अन्य अनुयोगअश्रोता समा सीस पडिच्छण्णे, चोदणासु अणालसा।
साधु भी यथावश्यक अपने-अपने कम्बल अर्पित कर देते हैं। गणिणी गुणसंपन्ना, पसज्झा पुरिसाणुगा॥
सर्वप्रथम अनुयोगमण्डलीस्थल का प्रमार्जन कर दो निषद्या संविग्गा भीयपरिसा, उग्गदंडा य कारणे।
की जाती है। एक पर गुरु बैठते हैं, दूसरी पर प्रमार्जित अक्षों को सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे य विसारया॥
स्थापित किया जाता है। फिर कृतिकर्म (गुरुवन्दन) कर विगहा विसोत्तियादिहिं वज्जिता जा य निच्चसो।
अनुयोगस्थापना के लिए आठ उच्छ्वास का कायोत्सर्ग तथा ज्येष्ठ
__मुनि को वन्दन किया जाता है। एयग्गुणोववेयाए तीए पासम्मि निक्खिवे॥
शिष्य ने पूछा-ज्येष्ठ कौन? जो दीक्षापर्याय में बड़ा है या (व्यभा ३०७८-३०८०)
जो जाति-कुल से श्रेष्ठ है या जिसने बहुत श्रुत पढ़ा है या जिसने प्रवाचिका प्रवर्तिनी शिष्यों और प्रातीच्छिकों के प्रति समान अनेक परिपाटियों से अर्थश्रवण किया है. क्या वह ज्येष्ठ है? गरु व्यवहार करती है, शिक्षण-प्रशिक्षण और सारणा-वारणा में उद्यमशील ने कहा-नहीं। अनुयोग के सन्दर्भ में वह साधु ज्येष्ठ है, जो होती है तथा अनभिभवनीय पुरुषों का अनुसरण करती है। वह व्याख्यालब्धिसम्पन्न है, अर्थमंडली के श्रोता जिसके व्याख्यान संविग्न (सामाचारीकुशल) होती है और स्वाध्याय-ध्यान-संलग्न का समर्थन करते हैं और जो अग्रणी होकर क रहती है। उसकी परिषद् उसके भय से कोई भी अकरणीय कार्य ।
* अनुयोगविधि
द्र श्रीआको १ अनुयोग नहीं करती। स्खलना होने पर वह उग्र दण्ड देती है। वह संग्रह
१०. वाचनामंडली के प्रकार : क्षेत्र आभवद् व्यवहार में विशारद होती है तथा विकथा और विस्रोतसिका (चैतसिक चंचलता)का सदा वर्जन करती है। इन गुणों से सम्पन्न साध्वी के
साधारणट्ठिताणं, जो भासति तस्स तं भवति खेत्तं।
वारग तद्दिण पोरिसि, मुहुत्त भासे उ जो ताहे ॥ पास वाचना की व्यवस्था की जा सकती है।
आवलिया मंडलिया, घोडगकंडूइतए व भासेज्जा। ९. सूत्रार्थमण्डली-व्यवस्था
सुत्तं भासति सामाइयादि जा अट्ठसीतिं तु॥ सुत्तम्मि होइ भयणा, पमाणतो यावि होइ भयणा उ।
एमेव मंडलीय वि, पुव्वाहिय नट्ठ धम्मकह-वादे। अत्थम्मि उ जावइया, सुणिंति थेवेसु अन्ने वि॥
अधव पइण्णग सुत्ते , अधिज्जमाणे बहुसुते वि॥ मज्जण निसिज्ज अक्खा, किइकम्मुस्सग्ग वंदणग जेतु। छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाए उ अंतए ठाति। परियाग जाइ सुअ सुणण समत्ते भासई जो उ॥ मंडलीय सट्ठाणं, सच्चित्तादीसु संकमति॥
(बृभा ७७८, ७७९) दोण्हं तु संजताणं, घोडगकंडूइयं करेंताणं। सूत्रमण्डली में निषद्या की भजना है-सूत्रवाचनाचार्य जो जाहे जं पुच्छति, सो ताधि पडिच्छओ तस्स ॥ यदि तरुण और स्वस्थ है तथा निषद्याप्रिय नहीं है तो निषद्या साधारणट्ठितासुं, सुत्तत्थाई परोप्परं गिण्हे। नहीं की जाती। यदि वह स्थविर है या रुग्ण तरुण है या वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयंते वा। निषद्याप्रिय है तो निषद्या की जाती है। प्रमाण से भी भजना ..."यद् वारंवारेण परस्परं प्रच्छनं तत् घोटकयोः परस्परं है-एक, दो, तीन अथवा जितने कल्पों पर बैठकर सुखपूर्वक कण्डूयितमिव""आवश्यकमधीते आवश्यक-वाचनाचार्यः वाचना दी जा सके, उतने कल्पों (कंबलों)से निषद्या की रचना पुनरावश्यकप्रतिप्रच्छकस्य समीपे दशवै-कालिकमधीते। करनी चाहिए।
दशवैकालिकवाचनाचार्यस्याभवति क्षेत्रम्। अर्थमण्डली की विधि-व्यवस्था यह है कि जितने साध ...बहुश्रुतविषयेऽपि मण्डली भवति। तत्राप्या
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