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वाचना
दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिसं जहा समासज्ज । एतेहिं कारणेहिं, पत्तमवि विदू ण वाएज्जा ॥ आहारादीणऽसती, अहवा आयंबिलस्स तिविहस्स । खेत्ते अद्धाणादी, जत्थ सज्झाओ ण सुज्झेज्जा ॥ असिवोमाईकाले, असुद्धकाले व भावगेलण्णे । आतगत परगतं वा, पुरिसो पुण जोगमसमत्थो ॥ ( निभा ६२२१, ६२३०, ६२३३-६२३६)
अपात्र (अयोग्य) को वाचना देना और पात्र को वाचना न देना - दोनों प्रायश्चित्तार्ह हैं । दुर्विनीत शिष्य को किंचित् भी वाचना नहीं देनी चाहिए। जिस व्यक्ति के कान, हाथ आदि छिन्न हों, उसे कभी आभूषण नहीं दिए जाते। समय आने पर विशिष्ट विद्याओं को साथ लेकर मरना अच्छा है, किन्तु अपात्र को वाचना देना और पात्र की अवमानना करना अच्छा नहीं है ।
पात्र को वाचना न देने से अपयश होता है, सूत्र - अर्थ का विच्छेद और प्रवचन की हानि होती है (आगमशून्य तीर्थ में कोई प्रव्रजित नहीं होता) । ये मात्सर्ययुक्त एवं पक्षपातयुक्त हैं- इस रूप में की अवज्ञा होती है। गुरु
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पुरुष - इनकी अनुकूलता न हो तो गुरु योग्य शिष्य को भी वाचना न दे
० द्रव्य - आहार आदि की समुचित व्यवस्था या उपलब्धि न हो। आचाम्ल (आयंबिल) के निर्धारित क्रम में ओदन, कुल्माष और सत्तु - यह त्रिविध आचाम्ल संबंधी आहार प्राप्त न हो । ० क्षेत्र - मार्गप्रतिपन्न हो । जहां स्वाध्याय योग्य क्षेत्र न हो। • काल - अशिव या दुर्भिक्ष हो । अस्वाध्यायिक काल हो । ० भाव - स्वयं या शिष्य ग्लान हो या वैयावृत्त्य में व्यापृत हो ० पुरुष - वाचनाभिलाषी योगवहन में असमर्थ हो ।
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३. वाचना के अयोग्य : अव्यक्त और अप्राप्त जे भिक्खू अपत्तं वाएति ॥
अव्वत्तं वाएति ॥ ( नि १९ / २०, २२) परियाण सुतेण य, वत्तमवत्ते''''''''''' आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेति । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ सोलसहं वरिसाणं आरतो अव्वत्तो, पव्वज्जाए तिन्हं
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आगम विषय कोश - २
वरिसाणं पकप्पस्स अव्वत्तो। जो वा जस्स सुत्तस्स कालो तो तं अपावेंतो अव्वत्तो। सुएण आवस्सगे अणधीए दसवेयालिए अव्वत्तो, दसवेयालिए अणधीए उत्तरज्झयणाणं अव्वत्तो । (निभा ६२४०, ६२४३ चू)
जिस श्रुताध्ययन का जो काल निश्चित है, उसको अप्राप्त और अव्यक्त - जिसकी अवस्था सोलह वर्ष से कम है, उस शिष्य को वाचना देने वाला भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
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तीन वर्ष से न्यून दीक्षापर्याय वाला निशीथ के लिए अप्राप्त है । आवश्यक का अनध्येता दशवैकालिक के लिए तथा दशवैकालिक का अनध्येता उत्तराध्ययन के लिए अप्राप्त है।
पर्याय से व्यक्त और श्रुत से प्राप्त है, वही वाचनीय है। जैसे कच्चे घड़े में डाला हुआ जल घड़े को ही नष्ट कर देता है, वैसे ही जिसका आधार सुदृढ़ नहीं है, धारणासामर्थ्य नहीं है, उस अव्यक्त - अप्राप्त को बताये गये सिद्धांत (छेदश्रुत आदि) के रहस्य उसे नष्ट कर देते हैं।
(जिसने निशीथ नहीं पढ़ा, वह श्रुत से अव्यक्त है तथा जो सोलह वर्ष से कम है, वह वय से अव्यक्त है। - आभा ५ / ६२) ४. अविधि से श्रुतग्रहण का प्रायश्चित्त
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दूरत्थो वा पुच्छति, अधव निसेज्जाय सन्निसण्णो उ । अच्चासण्णनिविडुट्ठिते अंजलिपणाम करणं, विप्पेक्खते दिसऽहो उड्ढमुहं । भासंत अणुवउत्ते, व हसंते पुच्छमाणो उ ॥ एतेसु य सव्वेसु वि, सुत्ते लहुओ उ अत्थे गुरुमासो । नाभीतोवरि लहुगा, गुरुगमधो कायकंडुयणे ॥ तम्हा वज्जंतेणं, ठाणाणेताणि पंजलुक्कुडुणा । सोयव्व पयत्तेणं, कितिकम्मं वावि कायव्वं ॥
(व्यभा २३४०-२३४३ )
जो जिज्ञासु श्रोता दूर खड़ा होकर, निषद्या पर बैठकर, अतिनिकट बैठकर या अतिनिकट खड़े होकर श्रुतप्रदाता से पूछता है और सुनता है, जो बद्धांजलि हो नहीं सुनता, पाठ समाप्ति पर वन्दना नहीं करता, दिशाओं को देखता हुआ सुनता है, गुरु के अभिमुख न होकर अधोमुख या ऊर्ध्वमुख हो सुनता है, जिस किसी के साथ बातें करता हुआ या अनुपयुक्त हो सुनता है, हंसता
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