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आगम विषय कोश-२
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वाचना
भाव्यमावलिकायामिवा"एक एकस्य पार्वे आवश्यक मण्डली में भी आवलिका जैसा ही क्रम होता है यथानष्टमुज्ज्वालयति, एषोऽप्यावश्यकवाचनाचार्योऽप्यन्यस्य जहां एक एक के पास पूर्व अधीत किन्तु विस्मृत आवश्यक को समीपे दशवैकालिकं, दशवैकालिकवाचनाचार्योप्यपरस्य उज्ज्वालित करता है (पुनः सीखता है/स्मरण करता है)और समीपे उत्तराध्ययनानि, उत्तराध्ययनवाचनाचार्योऽप्यन्यस्य आवश्यकवाचनाचार्य पुन: उसके पास दशवैकालिक का पाठ करता समीपे आचाराङ्गम् एवं यावद् विपाकश्रुतवाचनाचार्यः पूर्वाधीतं है तो वह क्षेत्र दशवैकालिकवाचनाचार्य के अधीन होता है। नष्टमन्यस्य पार्श्वे दृष्टिवादमुज्ज्वालयति, दृष्टिवादवाचना- एक एक के पास विस्मृत आवश्यक का पारायण करता चार्यस्याभवति।..
है, आवश्यकवाचनाचार्य किसी दूसरे के पास दशवैकालिकका, आवलिकायामुपाध्यायकोऽन्तर्मध्ये विविक्ते प्रदेशे दशवैकालिकवाचनाचार्य किसी तीसरे के पास उत्तराध्ययन का तिष्ठति, मण्डल्यां पुनः स्वस्थानमाभवनं च पाठयितरि और उत्तराध्ययनवाचनाचार्य किसी अन्य के पास आचारांग का संक्रामति तत्क्षेत्रगतसचित्तादिविषयम्।"यावच्च यः । पाठ करता है। इसी क्रम से उत्तरोत्तर यावत् विपाकश्रुतवाचनाचार्य प्रतीच्छ्यस्तावत्तस्याभवति, न शेषकालमिति।
जहां किसी अन्य के पास पूर्व अधीत विनष्ट दृष्टिवाद को ....यथाहमद्य तव पार्वे गृह्णामि। कल्ये त्वं मम उज्ज्वालित करता है तो वह क्षेत्र दृष्टिवादवाचनाचार्य के निश्रित पार्वे ग्रहीष्यसि। अथवा पौरुषीप्रमाणेन मुहूत्र्तेर्वा वारकं होता है। कुर्वन्ति ।(व्यभा १८२३, १८२४, १८३०-१८३२, १८५५ वृ) .
० आवलिका एवं मंडली में अंतर-आवलिका एकांत-छिन्न ___ जो सर्वसाधारण क्षेत्र है, जिसमें अनेक साधुवर्गों का ।
प्रदेश में तथा मंडली स्वस्थान-अच्छिन्न प्रदेश में होती है। अवग्रह है, वहां जो साधु सूत्र या अर्थ का कथन करता है, वह क्षेत्र ।
आवलिका में उपाध्याय विविक्त क्षेत्र में तथा मंडली में स्वस्थान उसके अधिकार में होता है। यदि बारी-बारी से कथन किया जाता
में स्थित रहता है। उस स्थिति में आभवन पाठयिता में संक्रान्त है तो जो जितने दिन, पौरुषी या मुहूर्त तक श्रुत-संभाषण करता है,
हो जाता है-उस क्षेत्रगत सचित्त आदि वस्तुएं उसके निश्रित
होती हैं। उतने काल तक उसका अवग्रह है। सूत्र-अर्थ संभाषण (पाठन/वाचना) के तीन प्रकार हैं
० घोटककण्डूयित-दो साधुओं में घोटककण्डूयन की तरह १. आवलिका-जो मंडली एकान्त-छिन्न प्रदेश में होती है।
परस्पर पृच्छा होती है। जो जब जिसको पूछता है, तब वह २. मंडली-जो अपने ही स्थान-अच्छिन्न प्रदेश में होती है।
उसका प्रतीच्छक होता है। जो जब तक प्रतीच्छ्य-उत्तरदाता ३. घोटककण्डूयित-परस्पर घोटक (अश्व) कण्डूयन की तरह
होता है, तब तक वह क्षेत्र उसके निश्रित होता है। जिस मंडली में परस्पर पुनः पुनः पृच्छा-प्रतिपृच्छा होती है।
जैसे अश्व परस्पर कण्डूयन करते हैं, वैसे ही साधु वारंवार सूत्रपठन के संदर्भ में सामायिक से लेकर दृष्टिवादगत परस्पर सूत्र-अर्थ ग्रहण करते हैं। यथा-आज मैं तुम्हारे पास अदासी सूत्रपर्यंत सूत्रपाठ किया जाता है। आवश्यकवाचनाचार्य पढूंगा, कल तुम मेरे पास पढोगे। अथवा इतने प्रहर या मुहूर्तों का आवश्यक-प्रतिपृच्छक के पास दशवैकालिक का पाठ करता है तो क्रम निश्चित कर लिया जाता है। वह क्षेत्र दशवैकालिकवाचनाचार्य का होता है।
० पृच्छा और अवग्रह निम्न स्थानों में मंडली विधि का उपक्रम होता है
___ पुच्छा हि तीहि दिवसं, सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति। ० पूर्व अधीत विस्मृत श्रुत का पुनः स्मरण करने के लिए।
(व्यभा २२२७) ० धर्मकथा और वादशास्त्रों के स्मरण-अध्ययन के लिए। ० प्रकीर्णकश्रुत-अध्ययन के लिए तथा बहश्रत के विषय में भी तान पृच्छा में एक दिन का तथा सात पृच्छा में एक महीने मण्डली होती है।
का अवग्रह-उस काल में प्राप्त शिष्य आदि उसके होते हैं।
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