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आगम विषय कोश-२
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वाचना
अर्थअवगाहन से उनमें तीव्र संवेग रस उत्पन्न होता है। उन क्षणों अहवा सस्थपरिणं अवाएत्ता लोगविजयं वाएति। दोस में उन्हें अतिशय परिणाम- विशुद्धिसंयुत एकाग्रता से अवधिज्ञान सुअक्खंधेसु जहा बंभचेरे अवाएत्ता आयारग्गे वाएति। आदि विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हो सकता है।
हेट्ठिल्ला उस्सग्गसुता तेहिं अभावितस्स उवरिल्ला ० मुडिम्बक दृष्टांत-मुडिम्बक मुनि तथा सुहिडिम्बक आचार्य अववादसुया ते ण सद्दहति अतिपरिणामगो भवति, पच्छा वा परम काष्ठीभूत-अत्यंत स्थिरता से शुभध्यान में लीन थे। यदि उस्सग्गं न रोचेइ।"आदिसुत्तवज्जितो उवरिसु अट्ठाणेण य पुष्यमित्र द्वारा ध्यान में विघ्न उपस्थित नहीं किया जाता तो उन्हें । पयत्तेण बहुस्सुतो भण्णति, पुच्छिज्जमाणो य पुच्छं ण अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता।
णिव्वहति। "पियधम्म-दढधम्मस्स, निसग्गतो परिणामगस्स, ० इन्द्रदत्तसुत दृष्टांत-इन्द्रपुर में इन्द्रदत्तनृप के पुत्रों ने राधावेधकला संविग्गसभावस्स, विणीयस्स, परममेहाविणो-एरिसस्स.... का अभ्यास किया, पर प्रमाद, विकथा आदि के कारण वे उसे
उक्कमेण विदेज्जा"सव्वो चरणाणुओगोतंअवाएत्ता उत्तमसुतं पूर्णतः भूल गये। एकाग्रता से ग्रहण किया हुआ श्रुत भी अभ्युत्थान वाएति।"धम्माणुओगं गणियाणुओगं..दवियाणुओगं आदि व्याक्षेपों के कारण विस्मृत हो जाता है।
वाएति।"
(निभा ६१८०-६१८४ चू) ० अगडदत्त-अर्जुन-दृष्टांत-अगडदत्त रथ पर आरूढ था। अर्जुन
जो भिक्षु पूर्ववर्ती समवसरण-आगमग्रंथों की वाचना दिए चोर उसके साथ युद्ध कर रहा था। अपनी विजय असंभव जानकर
बिना अग्रिम ग्रंथों की वाचना देता है, नवब्रह्मचर्य (आचारांग) से अगडदत्त ने अपनी रूपवती अलंकृत भार्या को रथ के अग्र भाग पर
पूर्व, उत्तम श्रुत-छेदसूत्र और दृष्टिवाद की वाचना देता है, वह बिठाया। अर्जुन रूप-लावण्य को देख मुग्ध हो गया, युद्ध करना
लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। आवश्यक से भूल गया। अगडदत्त ने उसे विनष्ट कर दिया।
बिंदुसार पूर्व पर्यंत श्रुत की व्युत्क्रम से वाचना देने वाला आज्ञाभंग १३. उत्क्रम से आगमवाचना का निषेध
आदि दोषों से दूषित होता है। जे भिक्खू हेट्ठिल्लाइं समोसरणाई अवाएत्ता उवरिम- श्रुतवाचना का क्रम सुयं वाएति....॥णव बंभचेराई अवाएत्ता उत्तमसुयं ० अंग-आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग। वाएति ॥"तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं ० श्रुतस्कंध-आवश्यक के पश्चात् दशवैकालिक। अथवा आचारांग उग्घातियं॥
(नि १९/१६, १७, ३७) श्रुतस्कंध के पश्चात् आचारचूला श्रुतस्कंध। आवासगमादीयं, सुयणाणं जाव बिंदुसाराओ। ० अध्ययन–सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव अथवा उक्कमओ वादेतो, पावति आणाइणो दोसा॥ शस्त्रपरिज्ञा के पश्चात् लोकविचय। ..."तं पुण नियमा अंगं, सुयखंधो अहव अज्झयणं॥ ० उद्देशक-प्रथम उद्देशक के पश्चात् द्वितीय आदि उद्देशक। उवरिसुयमसद्दहणं, हेट्ठिल्लेहि य अभावितमतिस्स। इसी प्रकार दशवैकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन, आचारांग ण य तं भुज्जो गेण्हति, हाणी अण्णेसु वि अवण्णो॥ अथवा सर्वचरणानुयोग के पश्चात् छेदसूत्र, धर्मानुयोग, गणितानुयोग णाऊण य वोच्छेदं, पुव्वगते कालियाणुजोगे य। और द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद) पठनीय हैं। सुत्तत्थ तदुभए वा, उक्कमओ वा वि वाएज्जा। जिसकी मति पूर्ववर्ती उत्सर्गसूत्रों से भावित नहीं है, वह छेयसुयमुत्तमसुयं, अहवा वी दिट्ठिवाओ भण्णइ उ।" अग्रिम अपवादसूत्रों में श्रद्धा नहीं करता और अतिपरिणामक बन
... दसवेयालिस्सावस्सगं हेट्ठिल्लं उत्तरज्झयणाणं जाता है, फिर पूर्ववर्ती श्रुत पढ़ने में उसकी रुचि नहीं रहती, दसवेयालियं हेडिल्लं, एवं णेयं जाव बिंदुसारेति"अंगं जहा इससे आदि सूत्रों की हानि होती है। वह आद्य सूत्रों को ग्रहण आयारो तं अवाएत्ता सुयगडंगं वाएति। सुयक्खंधो-जहा किए बिना अनुचित प्रयत्नों से अग्रिम सूत्रों को पढ़कर बहुश्रुत तो आवस्सयं तं अवाएत्ता दसवेयालियसुयक्खंधं वाएति। बन जाता है पर पूर्ण जानकारी के अभाव में सब प्रश्नों का सही अज्झयणं जहा सामातितं अवाएत्ता चउवीसत्थयं वाएति, समाधान नहीं दे पाता है, इससे लोक में अवर्णवाद होता है।
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