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लोक
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आगम विषय कोश-२
४. भावविशोधि से मोह-अपचय
प्रतिष्ठित है। २. समुद्र वायु पर प्रतिष्ठित है। ३. पृथ्वी समुद्र पर विसुझंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति। प्रतिष्ठित है। ४. त्रस-स्थावर प्राणी पृथ्वी पर प्रतिष्ठित हैं। मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया॥ ५. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। ६. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं।
(व्यभा २७६७) ७. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। ८. जीव कर्म द्वारा संग्रहीत हैं। लेश्यागत विशुद्धयमान भावों से मोह अपचित होता है।
आकाश स्व-प्रतिष्ठित है।... पृथ्वी उदधि पर प्रतिष्ठित मोह के अपचय से भावविशोधि होती है।
है, यह सापेक्ष वचन है। ईषत्-प्राग्भारा पृथ्वी आकाश पर प्रतिष्ठित
है। पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी हैं। यह भी सापेक्ष वचन लोक-विश्व, जगत्।
है। वे आकाश-पर्वत-विमान-प्रतिष्ठित भी हैं। १. लोकमध्य मंदर : द्विधा लोक
जितने दृश्य-परिवर्तन और परिणमन हैं, वे जीव के द्वारा २. वैताढ्य""मंदरगिरि का अवगाहन
कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या ३. द्वीप-समुद्र
जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। ४. कर्मभूमियां : भरत-ऐरवत-विदेह
जीव के जितने परिवर्तन और विविध रूप हैं. वे सब कर्म ० भरतक्षेत्र : छह खंड
द्वारा निष्पन्न हैं। इस अपेक्षा से जीव कर्म-प्रतिष्ठित है। ० महाविदेह आदि में अवस्थित काल
अजीव जीव के द्वारा संग्रहीत हैं, उनमें कथञ्चित् एकात्मक ५. अधोलोकग्राम
संबंध स्थापित होता है। इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है।
कर्म का जीव के साथ संबंध स्थापित होता है। इसलिए १. लोकमध्य मंदर : द्विधा लोक पुव्वावरायया खलु, सेढी लोगस्स मज्झयारम्मि।
उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है। भ १/३१० वृ) जा कणड दहा लोगं, दाहिण तह उत्तरद्धं च॥ २. वैताढ्य... मंदरगिरि का अवगाहन इह सर्वस्यापि लोकस्य"मध्यभागे मन्दरस्य पर्वत
ओगाहणग्ग सासतणगाण उस्सतचउत्थभागो उ। स्योपरि श्रेणिः' आकाशप्रदेशपंक्तिरेकप्रादेशिकी''प्रदीर्घा
मंदरविवज्जिताणं, जं वोगाढं तु जावतियं॥
अंजणग-दहिमखाणं, कंडल-रुयगं च मंदराणं च। समस्ति, या श्रेणिर्लोकमेकरूपमपि द्विधा करोति। तद्यथा
ओगाहो उ सहस्सं, सेसा पादं समोगाढा॥ दक्षिणलोकार्धमुत्तरलोकार्धं च। (बृभा ६७२ वृ)
..."अवगाह अधस्तात् प्रवेश इत्यर्थः ।"पव्वता""जे सम्पूर्ण लोक के मध्यभाग में मंदर पर्वत पर श्रेणि-एक जंबुद्दीवे वेयडाइणो ते घेप्पंति, ण सेसदीवेसु।"वेयड्वस्स प्रादेशिकी आकाशप्रदेशपंक्ति पूर्व से पश्चिम तक आयत-प्रदीर्घ पणवीसजोयणाणुस्सओ तेसिं चउत्थभागेण छजोयणाणि है, जो एक रूपात्मक लोक को दो भागों में विभक्त करती है- सपादा तस्स चेवावगाहो भवति। (निभा ५१, ५२ चू) दक्षिणलोकार्ध और उत्तरलोकार्ध।
जम्बूद्वीप में मंदरगिरि को छोड़कर शेष वैताढ्य आदि जो * षड्द्रव्यात्मक लोक
द्र श्रीआको १ लोक शाश्वत पर्वत हैं, उनका अवगाहन-अधस्तात् प्रवेश उनकी ऊंचाई (पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है। का चतुर्थ भाग है। जैसे-पचीस योजन ऊंचा वैताढ्य सवा छह वह अनादि, अनन्त, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में योजन पृथ्वी के भीतर गहरा है। अंजन, दधिमुख, कुण्डल, रुचक विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न भाग में और मंदर पर्वत एक हजार योजन पृथ्वी के भीतर हैं। पर्यंक के आकार वाला, मध्य में उसकी आकृति श्रेष्ठ वज्र जैसी है और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है।.....-भ ५/२५५ दीवा जंबुद्दीवधाततिसंडातिणो। उदही समुद्दा, ते य लोकस्थिति आठ प्रकार की है- १. वायु आकाश पर लवणाइणो।
(निभा ६१ की चू)
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