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आगम विषय कोश-२
४८७
लेश्या
द्रव्यलेश्या नाम जीवस्य शुभाशुभपरिणामरूपायां कालभेद से संख्यातीत अध्यवसायस्थान होते हैं। भावलेश्यायां परिणममानस्योपष्टम्भजनकानि कृष्णादीनि जैसे नर्तकी त्वरा से बांस पर चढती-उतरती है, वैसे ही पुदगलद्रव्याणि। ताभिश्च द्रव्यलेश्याभिः भावः शुभा- शुभ-अशुभ परिणामों में आरोह-अवरोह होता है। शुभाध्यवसायरूपः साध्यते। (बृभा १६४४, १६४५ वृ) ० लेश्यास्थान और परिणामस्थान
१. द्रव्यलेश्या-प्रज्ञापनासूत्र (१७) और उत्तराध्ययनसूत्र (३४) लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के, ठाणसंखमतिच्छिया। __ में कृष्ण आदि छह लेश्याओं के इष्ट और अनिष्ट वर्ण, गन्ध, रस किलिटेणेतरेणं, वा जे तु भावेण खंदती॥ तथा स्पर्श वर्णित हैं-ये सब द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से हैं।
"खंदति आस्कन्दति प्राप्नोतीत्यर्थः । "कृष्णलेश्याजीव के शुभ-अशुभ परिणाम रूप भावलेश्या के परिणमन परिणामान्नीललेश्यापरिणामो विशद्धो नीललेश्यापरिणामामें अवलम्बनभूत कृष्ण आदि पदगल द्रव्य द्रव्यलेश्या है।
दपि कापोतलेश्यापरिणामो विशुद्धस्तस्मादपि तेजोलेश्या२. भावलेश्या-शुभ-अशुभ अध्यवसाय भावलेश्या है। जैसी शुभ- परिणामो विशुद्धस्तस्मादपि पद्मलेश्यापरिणामो विशुद्धस्त__ अशुभ वर्ण-रस-गंध-स्पर्शमयी द्रव्यलेश्या होती है, वैसी ही स्मादपि शक्ललेश्यापरिणामः । शक्ललेश्यापरिणामात् लेश्याकाल में लेश्यावान् की भावलेश्या होती है।
पद्मलेश्यापरिणामः क्लिष्टस्तस्मादपि.. कृष्णलेश्या(लेश्या का पौद्गलिक स्वरूप तैजसवर्गणा, प्रवर्तक शक्ति परिणामः।
(व्यभा २७६५ वृ) __ वीर्यलब्धि और घटक शक्ति शरीरनामकर्म है। यह आभामंडल या वर्ण का हेतु है।...-- श्रीआको १ लेश्या)
एक लेश्यास्थान में संख्यातीत परिणामस्थान होते हैं, जिनकी
प्राप्ति का कारण है-संक्लिष्ट-असंक्लिष्ट भाव। २. परिणामों की विविधता : वीचि आदि उपमाएं
कृष्णलेश्या के परिणामों से नीललेश्या के परिणाम तथा जहा य अंबुनाधम्मि, अणुबद्धपरंपरा।।
नीललेश्या के परिणामों से भी कापोतलेश्या के परिणाम शुद्ध होते वीई उप्पज्जई एवं, परिणामो सुभासुभो॥
हैं। उससे भी तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के परिणाम कण्हगोमी जधा चित्ता, कंटयं वा विचित्तयं।
क्रमशः शुद्ध, शुद्धतर और शुद्धतम होते हैं। तधेव परिणामस्स, विचित्ता कालकंडया॥
शुक्ललेश्या के परिणाम से पद्मलेश्या का परिणाम तथा लंखिया वा जधा खिप्पं, उप्पतित्ता समोवए।
पद्मलेश्या के परिणाम से भी तेजोलेश्या का परिणाम क्लिष्ट होता परिणामो तहा दुविधो, खिप्पं एति अवेति य॥
है, उससे भी कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णलेश्या का परिणाम ""कृष्ण (कर्ण) शृगाली यथा सा कृष्णादिभी रेखा
उत्तरोत्तर अधिक संक्लिष्ट होता है। भिश्चित्रा विचित्रवर्णा भवति। वृश्चिकस्य महाविषलांगूलं कण्टक उच्यते।"कालभेदेन कण्डकान्यसंख्येयस्थानात्म
३. लेश्या के अनुसार कर्मबंध
जं चिज्जए उ कम्मं, जं लेसं परिणयस्स तस्सुदओ। कानि भवन्ति। (व्यभा २७६२-२७६४ वृ)
असुभो सुभो व गीतो, अपत्थ-पत्थऽन्न उदओ वा॥ जैसे समुद्र में एक के बाद एक लहर उठती रहती है, वैसे
(बृभा १६४६) __ ही जीव के अनुबद्ध परम्परा वाले शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं।
शुभ या अशुभ लेश्या में परिणत जीव के शुभ या अशुभ जैसे कर्णशृगाली और वृश्चिककंटक (बिच्छू की पूंछ) कर्मों का बन्ध होता है। वे बद्ध कर्म ही उदयावलिका को प्राप्त कृष्ण आदि रेखाओं के कारण विचित्र वर्ण वाले होते हैं. वैसे ही कर शुभ या अशुभ रूप में उदय में आते हैं। जैसे अपथ्य तथा पथ्य कृष्ण लेश्या आदि के कारण परिणामों की विचित्रता होती है- आहार रोग और आरोग्य के रूप में परिणत होता है।
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