________________
रात्रिभोजनविरमण
३. रात्रि में (सूर्योदय से पहले) अशन आदि का प्रतिग्रहण कर दिन में (सूरज उगने पर) खाता है,
४. रात्रि में अशन आदि का प्रतिग्रहण कर रात्रि में खाता है, वह गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है।
२. रात्रिभोजन : मूलगुणप्रतिसेवना
मूलगुणे
छट्ठाणा'
मूलगुणा आद्यगुणा प्रधानगुणा इत्यर्थः । तेसु पडिसेवणा जा सा छट्टाणा भवति पाणातिवाओ, मुसावाओ, अदत्तादाणं, मेहुणं, परिग्गहो, रातीभोयणं च । (निभा ८९ चू)
आद्य गुणों- प्रधानगुणों को मूलगुण कहा गया है। उनमें प्रतिसेवना के छह स्थान हैं। वे ये हैं- प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन । ३. कालातिक्रांत रात्रिभोजन
भिक्खू य उग्गयवित्तीए अणत्थमियसंकप्पे संथडिए निव्वितिगिच्छे असणं वा पडिग्गाहेत्ता आहारमाहारेमाणे अह पच्छा जाणेज्जा - अणुग्गए सूरिए अत्थमिए वा, से जं च मुहे जं च पाणिंसि जं च पडिग्गहे तं विगिंचमाणे वा विसोहेमाणे वा नो अइक्कमइ, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे राई भोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउम्मासिय परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥ (क ५/६)
सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पहले भिक्षाचर्या करने की प्रतिज्ञा वाला असंदिग्ध समर्थ भिक्षु अशन आदि का प्रतिग्रहण कर आहार करता हुआ बाद में जाने कि सूर्योदय नहीं हुआ है या अस्त हो गया है, तो वह जो आहार मुंह में, हाथ में और पात्र में है, उसका व्युत्सर्ग-विशोधन करता हुआ आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। उस आहार को स्वयं खाता है अथवा दूसरों को देता है तो उसे रात्रिभोजन - प्रतिसेवनाप्रत्ययिक गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है ।
४. उद्गार निगलने का प्रायश्चित्त
इह खलु निग्गंथस्स वा निग्गंथीए वा राओ वा वियाले वा सपाणे सभोयणे उग्गाले आगच्छेज्जा.....तं
Jain Education International
४८६
आगम विषय कोश - २
उग्गिलित्ता पच्चोगिलमाणे राईभोयणपडिसेवणपत्ते आवज्जइ चाउ - म्मासयं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥
(क ५/१०) निग्रंथ अथवा निर्ग्रथी को रात्रि में या विकाल (संध्या) में पानी- भोजन सहित उद्गार आये, उसका विसर्जन-विशोधन करता हुआ वह आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। यदि वह उस उद्गार को पुनः निगलता है तो उसे रात्रिभोजनप्रतिसेवना से प्राप्त होने योग्य गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
• उद्गार और अन्नगंध से व्रतभंग नहीं
........न अण्णगंधा, हणंति छट्टं जहेव उग्गारा ।....... (बृभा १७३७)
जैसे उद्गार रात्रि में आने पर भी छठे व्रत - रात्रिभोजनविरमण व्रत का उपहनन नहीं करते, वैसे ही भोजन की गंध छठे व्रत का विनाश नहीं करती।
* रात्रिभोजनवर्जन......
द्र श्रीआको १ रात्रिभोजनविरमण
रोग-व्याधि |
द्र चिकित्सा लवसत्तम - एक भवावतारी देव । द्र देव लेश्या - तैजस शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतनाभावधारा और उसमें हेतुभूत पुद्गल ।
१. द्रव्यलेश्या और भावलेश्या
२. परिणामों की विविधता : वीचि आदि उपमाएं • लेश्या स्थान और परिणामस्थान
३. लेश्या के अनुसार कर्मबंध ४. भावविशोधि से मोह- अपचय * चंचलता-एकाग्रता का हेतु * जिनकल्पी में लेश्या
१. द्रव्यलेश्या और भावलेश्या
वण्ण-रस-गंध-फासा, इट्ठाऽणिट्ठा विभासिया सुत्ते । अहिकिच्च दव्वलेसा, ताहि उ साहिज्जई भावो ॥ पत्तेयं पत्तेयं, वण्णाइगुणा जहोदिया सुत्ते । तारिसओ च्चिय भावो, लेस्साकाले वि लेस्सीणं ॥
For Private & Personal Use Only
द्र ध्यान द्र जिनकल्प
www.jainelibrary.org