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राज्य
क्षेत्र की दृष्टि से अंतःपुर के दो प्रकार हैं- स्वस्थानराजभवनस्थित अंत:पुर और परस्थान - वसंतोत्सव आदि के समय उद्यानिकागत अंतःपुर ।
अंतःपुर में पांच प्रकार के रक्षक राजा द्वारा नियुक्त किए जाते थे१. दंडरक्षक - हाथ में दण्ड धारण किए हुए अंत:पुर की रक्षा करने वाला । राजा की आज्ञा से स्त्री अथवा पुरुष को अंतःपुर में प्रवेश दिलाने और बाहर लाने का कार्य करने वाला ।
२. द्वारपाल - अंतःपुर के द्वार पर स्थित होकर रक्षा करने वाला । ३. वर्षधर (कृतनपुंसकविशेष) । बद्धित और चिप्पित इसी के दो प्रकार हैं। ये अंतःपुर के भीतर रहकर रक्षा कार्य करते थे। ४. कंचुकी - राजा की आज्ञप्ति को अंतःपुर तक और अंत:पुर की आज्ञप्ति को राजा तक पहुंचाने वाला प्रतिहारी ।
५. महत्तरक—इसके कार्य हैं- रानियों को राजा के पास ले जाना, उनके क्रोध को शांत करना और क्रोध के कारणों को राजा को बताना आदि। (महत्तरिका राहस्यिकी परिषद्-द्र परिषद्) ७. छह प्रकार की शालाएं
रण्णो इमाई छद्दोसाययणाईतं जहा- कोट्ठागारसालाणि वा भंडागारसालाणि वा पाणसालाणि वा खीरसालाणि वा गंजसालाणि वा महाणससालाणि वा । (नि९/७) राजकुल में खाद्यसंबंधी छह शालाएं होती थीं१. कोष्ठागारशाला - धान्य रखने का स्थान । २. भांडागारशाला -- सोने, चांदी आदि के बर्तनों का स्थान । ३. पानशाला - पानी, सुरा आदि रखने का स्थान ।
४. क्षीरशाला- दूध, दही आदि की शाला ।
५. गंजशाला - धान्य कूटने का स्थान ।
६. महानसशाला - रसोईघर, पाकशाला ।
आगम विषय कोश - २
अतिधीण भत्तं करेति राया। रण्णाो कोति पाहुणगो आगतो तस्स भत्तं आदेसभत्तं | आरोग्गसालाए वा विणावि आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभत्तं । (नि ९/६ चू)
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राजकुल में अनेक प्रकार के व्यक्तियों के लिए भोजन बनता था । यथा— द्वारपालभक्त, पशुभक्त, भृतकभक्त, बल (सेना) भक्त, दासभक्त, कांतारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, द्रमकभक्त, ग्लानभक्त, बार्दलिकाभक्त और प्राघूर्णकभक्त ।
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० कांतारभक्त - अटवीनिर्गत यात्रियों के लिए बनाया गया भोजन । • दुर्भिक्षभक्त - भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्तियों द्वारा बुभुक्षितों के लिए बनाया गया भोजन ।
० द्रमकभक्त - दीन - गरीबों के लिए बना भोजन ।
• ग्लानभक्त - आरोग्यशाला में अथवा आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यतः रोगी को दिया जाने वाला भोजन ।
• बार्दलिकाभक्त - सात दिनों तक वर्षा पड़ने पर राजा द्वारा भिक्षुओं के निमित्त बनाया गया भोजन ।
• प्राघूर्णकभक्त - आदेशभक्त, अपूर्व अतिथि अथवा राजा के मेहमान लिए कृत भोजन । (कान्तारभक्त - अटवी में मुनि के निर्वाह के लिए बनाया गया भोजन । प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथसाथ होता था। कभी वे अटवी में साधु पर दया लाकर उनके लिए भोजन बना देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है। बार्दलिकाभक्त - आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है । ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते। यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषतः भोजन का निर्माण करता है। यह बार्दलिकाभक्त कहलाता है। -स्था ९/६२ का टिप्पण) ९. राज्यकर
स्थान साधु के प्रवेश के लिए दोषायतन हैं । ८. विभिन्न भक्त : कांतारभक्त, ग्लानभक्त आदि ......दोवारियभत्तं वा पसुभत्तं वा भयगभत्तं वा बलभत्तं वा कयगभत्तं वा कंतारभत्तं वा दुब्भिक्खभत्तं वा दमगभत्तं वा गिलाणभत्तं वा बद्दलियाभत्तं वा पाहुणभत्तं वा ॥
.....''सत्ताहवद्दले पडते भत्तं करेति राया, अपुव्वाणं वा ० सामान
॥
(व्यभा ४५५)
......वीसतिभागं सुकं " ....राया दस भागमेत्तसंतुट्ठो । (व्यभा ९२७) गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः । (व्यभा ९३६ की वृ) (बृभा १०८९)
जाने वाले पर बीस प्रतिशत चुंगीकर लगता था ।
नत्थेत्थ करो नगरं
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