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युद्ध
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आगम विषय कोश-२
अन्तरपल्लिका के निकटवर्ती भूभाग में जाता है। आचार्य वहां राजा चेटक और कूणिक के बीच दो युद्ध हुए-महाशिलाजाकर उसे वाचना देते हैं। चोलपट्टधारी वह आचार्य को वंदना कंटक और रथमूसल। इनका निरूपण व्याख्याप्रज्ञप्ति (७/१७३कर, औपग्रहिकी निषद्या पर बैठकर अर्थ सुनता है।
२१०) में है। असुरेन्द्र चमर और देवेन्द्र शक्र ने दोनों युद्धों में यदि आचार्य दोनों पौरुषी में वाचना देकर जाने में समर्थ नहीं कणिक का पूर्ण सहयोग किया। शक्र ने उसे वज्रमय कवच प्रदान हैं, तब अन्य शिष्य से अपने शिष्यों को वाचना दिलवाते हैं, स्वयं किया। नृप चेटक अपनी कृत प्रतिज्ञा के कारण युद्ध में एक दिन यथालन्दिक को वाचना देते हैं। यदि आचार्य जाने में असमर्थ हैं, में एक बाण चलाते थे। महाशिलाकंटक संग्राम में चेटक के तब ऋतुबद्धकाल में एक यथालन्दिक वाचना के लिए आचार्य के सारथि ने वृक्ष पर चढ़कर कणग (बाण) से कूणिक की पीठ पर पास आता है। यदि वर्षाकाल है, तब आने से पहले उपयोग प्रहार किया। वह बाण कवच से टकराकर गिर गया। कोणिक ने लगाता है कि कहीं वर्षा की संभावना तो नहीं है। वर्षा की क्रोधावेश में क्षरप्र से सारथि का सिर छिन्न कर डाला। संभावना होने पर आचार्य के पास नहीं जाता है।
(महाशिलाकंटक संग्राम-इस संग्राम के परोभाग में देवेन्द्र शक्र यथालंदिक के समीप उपगत गुरु के लिए पीछे से एक एक महान वज्रतल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित है। संघाटक (मुनिद्वय) आहर-पानी ग्रहण कर वहां ले जाता है। राजा कणिक ने महाशिलाकंटक संग्राम लडते हए नौ मल्ल और जिस समय गुरु यथालंदिक के उपाश्रय में जाते हैं, उस समय यदि नौ लिच्छवी-काशी-कौशल के अठारह गणराजों को हतअत्यधिक गमी होती है अथवा गुरु वृद्ध होते हैं, तो एक धारणासम्पन्न प्रहत कर दिया। वहां विद्यमान अश्व, हाथी. योद्धा अथवा सारथि यथालदिक अतरपल्लिका में आ जाता है, गुरु भी वहा जाकर पर तण काष्ठ पत्र अथवा कंकर का प्रहार किया जाता. तब वे उसको वाचना देकर, संघाटक द्वारा आनीत आहार कर संध्या के
सब अनुभव करते कि उन पर महाशिला से प्रहार किया जा रहा समय मूल क्षेत्र में आ जाते हैं।
है। इस संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। वे मरकर प्रायः ६. यथालन्दिक और कृतिकर्म
नरक और तिर्यक् योनि में उत्पन्न हुए। तस्स जई किइकम्मं, करिंति सो पुण न तेसि पकरेइ।
रथमूसल संग्राम-इस संग्राम के पुरोभाग में देवेन्द्र शक्र एक महान् जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं॥
वज्रतुल्य अभेद्य कवच का निर्माण कर उपस्थित है। उसके पृष्ठभाग (बृभा २०२१)
में असुरेन्द्र चमर एक महान् लोह का तापस-पात्र-तुल्य पात्र गच्छवासी यथालन्दिक को वन्दना करते हैं। लेकिन यथा- निर्मित कर उपस्थित है। राजा कणिक ने रथमसल संग्राम लडते लन्दिक पर्यायज्येष्ठ गच्छवासी साधओं को वंदना नहीं करता।
हए नौ मल्ल और नौ लिच्छवी-काशी-कौशल के अठारह गणराजों वह वाचना लेता है, तब तक आचार्य को वन्दना करता है, उसके को इत-परत कर दिया। उस समय एक रथ जिसमें घोडे जते हए बाद आचार्य को भी वन्दना नहीं करता-यह उसका आचार है।
नहीं थे, कोई सारथि उसे चला नहीं रहा था, जिसमें कोई योद्धा युद्ध-संग्राम।
नहीं बैठा था, उसमें एक मुसल था। उस मुसल से युक्त रथ महाशिलाकण्टक और रथमुसल संग्राम
योद्धाओं का वध करता हुआ, उनके लिए प्रलयपात के समान बना संगामदगं महसिलरधमुसल चेव परूवणा तस्स। हुआ, युद्धभूमि पर रक्त का कीचड़ फैलाता हुआ चारों तरफ दौड़ असुरसुरिंदावरणं, चेडग एगो गह सरस्स॥ रहा था। रथमुसल संग्राम में छियानवे लाख मनुष्य मारे गए। उनमें महसिल कंटे तहियं, वद्रूते कणिओ उ रधिएणं। से दस हजार मनुष्य एक मछली की कुक्षि में उत्पन्न हुए। एक रुक्खग्गविलग्गेणं, पढ़े पहतो उ कणगेणं॥ (नागनप्तृक वरुण) देवलोक में उत्पन्न हुआ। एक (नागनप्तृक उप्फिडितं सो कणगो, कवयावरणम्मि तो ततो पडितो। वरुण का मित्र) अच्छे मनुष्यकुल में उत्पन्न हुआ। शेष सब नरक तो तस्स कूणिएणं, छिन्नं सीसं खरप्पेणं॥ और तिर्यक् योनि में उत्पन्न हुए। (व्यभा ४३६३-४३६५)
कार्तिक सेठ की अवस्था में कणिक का जीव शक्र का मित्र
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