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यथालंदकल्प
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आगम विषय कोश-२
यथालंदकल्प-अप्रमाद की साधना का विशिष्ट उपक्रम। ...सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो॥
(बृभा १४३९, २०१४) १. यथालंदिक कौन? २. यथालंदिक की सामाचारी
जिनकल्प में तुलना, श्रुत, संहनन आदि संबंधी जो भी * यथालंदिक का श्रुत, संहनन आदि द्र जिनकल्प
मर्यादा (सामाचारी) है, वही यथालन्दिकों की है। केवल सूत्र, ३. प्रतिबद्ध-अप्रतिबद्ध और जिन-स्थविर यथालंदिक
भिक्षाचर्या, मासकल्प और प्रमाण में नानात्व है। ० भिक्षाचर्या और मासकल्प
३. प्रतिबद्ध-अप्रतिबद्ध और जिन-स्थविर यथालंदिक ० गण प्रमाण, पुरुष प्रमाण
पडिबद्धा इअरे वि य, इक्किक्का ते जिणा य थेरा य। * यथालंदिक की उपधि
द्र उपधि अत्थस्स उ देसम्मी, असमत्ते तेसि पडिबंधो॥ ४. यथालंदिक और क्षेत्रप्रतिलेखना
थेराणं नाणत्तं, अतरंतं अप्पिणंति गच्छस्स। ___ * अवग्रह के अधिकारी-अनधिकारी द्र अवग्रह ते वि य से फासुएणं, करिंति सव्वं तु पडिकम्मं ॥ ५. आचार्य द्वारा यथालंदिक को वाचना
एक्केक्कपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेराओ। ६. यथालंदिक और कृतिकर्म
जे पुण सिं जिणकप्पे, भय तेसिं वत्थ-पायाणि॥ १. यथालंदिक कौन?
ये प्रस्तुतकल्पपरिसमाप्तौ जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते लंदो उ होइ कालो, उक्कोसगलंदचारिणो जम्हा।.... । जिनाः, ये तु स्थविरकल्पं भूयः समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविराः। तिविहं च अहालंदं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। ""तदानीं हि लग्न-योग चन्द्रबलादीनि प्रशस्तानि वर्तन्ते, उदउल्लं च जहण्णं, पणगं पुण होड़ उक्कोसं॥ अन्यानि च प्रशस्तलग्नादीनि दूरकालवर्तीनि, न वा तथायावता कालेनोदकाः करः शुष्यति तावान् जघन्यः,
भव्यानि, ततोऽमी अगृहीतेऽप्यर्थदेशे तं कल्पं प्रतिपद्य उत्कृष्टः पञ्चरात्रिन्दिवानि, जघन्यादूर्ध्वमुत्कृष्टादर्वाक्
गुर्वधिष्ठितक्षेत्राद् बहिर्व्यवस्थिता विशिष्टतरानुष्ठाननिरता सर्वोऽपि मध्यमः ।... उत्कृष्टं लन्दं-पञ्चरात्ररूपमेकस्यां अगृहीतमर्थशेषं गृह्णन्ति। (बृभा १४४०-१४४२ वृ) वीथ्यां चरणशीला यस्मात् ततोऽमी, उत्कृष्टलन्दानतिक्रमो यथालन्दिक के दो प्रकार हैं-गच्छप्रतिबद्ध और अप्रतिबद्ध। यथालन्दम्, तदस्त्येषाम्, इति व्युत्पत्त्या यथालन्दिका उच्यन्ते। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-जिन और स्थविर।
(बृभा १४३८, ३३०३ वृ) जो प्रस्तुत कल्प की परिसमाप्ति पर जिनकल्प को स्वीकार
करेंगे, वे जिन और पुनः स्थविरकल्प को स्वीकार करेंगे, वे 'लन्द' शब्द काल का वाचक है। उसके तीन प्रकार हैं
स्थविर कहलाते हैं। यथालन्द स्वीकार के पश्चात् जब तक सूत्र के ० जघन्य-जितने काल में जल से आर्द्र हाथ सूखता है, उतना काल।
अर्थ का एक देश (भाग) भी गुरु से ग्रहण करना अवशिष्ट रहता ० उत्कृष्ट-पांच अहोरात्र।
है, तब तक वे गच्छ से प्रतिबद्ध रहते हैं। कल्प-ग्रहण के समय ० मध्यम-जघन्य और उत्कृष्ट का अन्तरालवर्ती काल।
में जैसे प्रशस्त लग्न, योग, चन्द्रबल आदि का योग हो, वैसा अन्य ___ जो पांच अहोरात्र तक एक वीथी में रहते हैं और वहीं
योग दूरवर्ती हो या उतना उपयुक्त न हो, तो अगृहीत अर्थदेश की भिक्षाचर्या करते हैं, उत्कृष्ट लंद का अतिक्रमण नहीं करते, वे
स्थिति में ही उस कल्प को स्वीकार कर गुरु-अधिष्ठित क्षेत्र से यथालंदचारी यथालंदिक कहलाते हैं।
बाहर रहते हैं, विशिष्ट अनुष्ठान में निरत हो शेष अर्थ देश को गुरु २. यथालन्दिक की सामाचारी
से ग्रहण करते हैं। ज च्चेव य जिणकप्पे, मेरा सा चेव लंदियाणं पि। स्थविरकल्पी यथालंदिक साधुओं में से कोई साधु रुग्ण हो नाणत्तं पुण सुत्ते, भिक्खायरि मासकप्पे य॥ जाता है. रोग को सहन नहीं कर पाता है तो उसे गच्छ को सौंप
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