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आगम विषय कोश-२
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यथालंदकल्प
दिया जाता है। गच्छवासी प्रासुक आहार आदि से उसकी पूरी इस कल्प को स्वीकार करने वाले पुरुषों में भजना भी है। सेवा करते हैं। जिनकल्पी यथालन्दिक निष्प्रतिकर्म होते हैं। वे ग्लान होने पर सेवा के लिए साध गच्छ में चले जाते हैं, इनकी ग्लान होने पर भी चिकित्सा नहीं करवाते।
संख्या न्यून हो जाती है, तो पंचकगण की पूर्ति के लिए एक, दो स्थविरकल्पी यथालंदिक एक-एक पात्र और वस्त्र रखते आदि साधु भी इस कल्प को स्वीकार करते हैं। हैं । जिनयथालंदिक के वस्त्र-पात्र की भजना है
पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट परिमाण कोटिजो पाणिपात्रभोजी और प्रावरणरहित जिनकल्पी होंगे, वे पृथक्त्व (दो करोड़ से नौ करोड़) है। पांच महाविदेह में ये वस्त्र-पात्र नहीं रखते, शेष यथोचित वस्त्र-पात्र ग्रहण करते हैं। जघन्यपदवर्ती तथा पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्कृष्ट पदवर्ती होते हैं। ० भिक्षाचर्या और मासकल्प
४. यथालन्दिक और क्षेत्रप्रतिलेखना एक्को वा सवियारो, हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा। सुत्तत्थपोरिसीओ, अपरिहवंता वयंतऽहालंदी। मासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निट्ठिओ होइ॥ थंडिल्ले उवओगं, करिति रत्तिं वसंति जहिं । सवियारो त्ति वित्थिन्नो। (बृभा २०२२ चू)
(बृभा १४७८) यथालंदिक मुनि गुरु-अधिष्ठित मूल क्षेत्र से बाहर यदि जो यथालन्दिक क्षेत्रप्रत्युपेक्षा के लिए जाते हैं, वे सूत्रपौरुषी विस्तीर्ण ग्राम होता है तो उसे छह वीथियों में परिकल्पित कर । और अर्थपौरुषी करते हुए दिवस के तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या तथा प्रत्येक वीथि में पांच-पांच दिन भिक्षाटन करते हैं और वहीं रहते विहार करते हैं। जहां रात्रिवास करते हैं, वहां कालग्रहण आदि के हैं। इस प्रकार प्रत्येक वीथि में अहोरात्रपंचक द्वारा विभज्यमान योग्य स्थंडिल की जानकारी कर लेते हैं। गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक मास छह अहोरात्रपंचक में संपूर्ण होता है।
एक दिशा में दो जाते हैं। (द्र क्षेत्रप्रतिलेखना) यदि ग्राम विस्तीर्ण नहीं होता है तो मलक्षेत्र के पार्श्ववर्ती
५. आचार्य द्वारा यथालन्दिक को वाचना छोटे-छोटे छह ग्रामों में से प्रत्यक में पांच-पांच अहोरात्र पर्यंत । सुत्तत्थ सावसेसे, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्यो। पर्यटन करते हुए मासकल्प पूर्ण करते हैं।
आयरिए किइकम्मं, अंतर बहिया व वसहीए॥ ० गण प्रमाण, पुरुष प्रमाण
दोन्नि वि दाउं गमणं, धारणकुसलस्स खेत्तबहि देइ। गणमाणओ जहन्ना, तिन्नि गण सयग्गसो य उक्कोसा। किइकम्म चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिज्जा य॥ पुरिसपमाणे पनरस, सहस्ससो चेव उक्कोसा॥ अत्थं दो व अदाउं, वच्चइ वायावए व अन्नेणं। पडिवज्जमाणगा वा, एक्कादि हवेज्ज ऊणपक्खेवे। एवं ता उडुबद्धे, वासासु य काउमुवओगं॥ होंति जहन्ना एए, सयग्गसो चेव उक्कोसा॥
संघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उ गुरूणं। पुव्वपडिवन्नगाण वि, उक्कोस-जहन्नसो परीमाणं।
अच्चुण्हं थेरा वा, तो अंतरपल्लिए एइ॥ कोडिपुहुत्तं भणियं, होइ अहालंदियाणं तु॥
(बृभा २०१५, २०१७-२०१९) ..."महाविदेहपञ्चके जघन्यपदवर्त्तिनः कर्मभूमिपञ्च
जिनकी सत्रार्थ की वाचना पूर्ण नहीं हई है. वे यथालन्दिक दशके चोत्कर्षपदवर्तिनः कोटिपृथक्त्वस्यामीषां प्राप्य- गच्छ से प्रतिबद्ध रहते हैं। वे केवल आचार्य को ही वन्दना करते माणत्वात्।
(बृभा १४४३-१४४५ वृ) हैं, अन्य साधुओं को नहीं-यह उनका आचार है। आचार्य असमर्थ जघन्य तीन गण (एक गण में पांच मुनि) तथा उत्कृष्ट होने पर मूल क्षेत्र में अथवा वसति के बाहर जाकर उन्हें अर्थ की शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ) गण एक साथ इस कल्प को वाचना देते हैं। स्वीकार कर सकते हैं। पुरुष प्रमाण की अपेक्षा जघन्य पन्द्रह पुरुष आचार्य गच्छवासी को सूत्र और अर्थ पौरुषी देकर यथाऔर उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति एक लन्दिक के पास जाते हैं और अर्थ की वाचना देते हैं। यदि आचार्य साथ इस कल्प को स्वीकार करते हैं।
अक्षम हैं तो यथालन्दिकों में जो धारणाकुशल है, वह क्षेत्र के बाहर
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