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महास्थंडिल
हुए, स्थंडिल की ओर गमन करे। यदि वहां कोई गृहस्थ हो तो शव को परिष्ठापित कर आचमन करे ।
शव का निर्हरण या परिष्ठापन करते समय उसका सिर गांव की ओर रहे - ऐसा करने से कदाचिद् शव उत्थित हो जाए, तब भी वह उपाश्रय की ओर नहीं आता। गांव की ओर पैर करने से अमंगल होता है और लोक गर्दा करते हैं। ८. श्मशानभूमि में परिष्ठापन की विधि
कुसमुट्ठिएण एक्केणं, अव्वोच्छिण्णाऍ तत्थ धाराए । संथार संथरिज्जा, सव्वत्थ समो य कायव्वो ॥ चिंधट्ठा उवगरणं, दोसा तु भवे अचिंधकरणम्मि । मिच्छत्त सो व राया, कुणति गामाण वहकरणं ॥ उट्ठाणाई दोसा, हवंति तत्थेव काउसग्गम्मि | अविहीय आगम्मुवस्सयं गुरुसमीव उस्सग्गो ॥ जो जहियं सो तत्तो, णियत्तइ पयाहिणं न कायव्वं । उणादी दोसा, विराहणा बालवुड्डाणं ॥ (बृभा ५५३२, ५५३६, ५५३८, ५५३९) स्थंडिल भूमि में पहुंचकर एक मुनि एक कुशमुष्टि से अव्यवच्छिन्न धारा से सर्वत्र सम संस्तारक तैयार करे। शव को उस पर परिष्ठापित कर और उसके पास रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्टक रखने चाहिए। इन यथाजात चिह्नों के न रखने से कालगत साधु मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है तथा चिह्नों के अभाव में राजा के पास जाकर कोई शिकायत कर सकता है कि एक मृत शव पड़ा है - यह सुनकर राजा कुपित होकर, आसपास के दो-तीन गांवों का उच्छेद भी कर सकता है।
स्थंडिल भूमि में मृतक का व्युत्सर्जन कर मुनि वहीं कायोत्सर्ग न करे किन्तु उपाश्रय में आकर आचार्य के पास, परिष्ठापन में कोई अविधि हुई हो तो उसके लिए कायोत्सर्ग करे। शव का परिष्ठापन कर लौटते समय प्रदक्षिणा न दे। यदि ऐसा करते हैं तो उत्थान आदि दोष होते हैं और बाल-वृद्धों की विराधना होती है।
० विषम संस्तारक के दोष
विसमा जति होज्ज तणा, उवरिं मज्झे तहेव हेट्ठा य । मरणं गेलन्नं वा, तिण्हं पि उ णिद्दिसे तत्थ ॥
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आगम विषय कोश - २
उवरिं आयरियाणं, मज्झे वसभाण हेट्ठि भिक्खूणं । तिन्हं पि रक्खणट्ठा, सव्वत्थ समा य कायव्वा ॥ (बृभा ५५३३, ५५३४)
शव के लिए कृत तृणसंस्तारक का ऊपरी भाग विषम होने पर आचार्य, मध्य भाग विषम होने पर वृषभ और नीचे का भाग विषम होने पर साधु मरण या ग्लानत्व को प्राप्त करता । अतः तीनों की सुरक्षा के लिए सर्वत्र सम संस्तारक करना चाहिए। ९. परिष्ठापन के पश्चात् तप, स्वाध्याय बिइयं वसहमतिंते ॥ जोगपरिवुड्डी ॥ गिves णामं एगस्स दोण्ह अहवा वि होज्ज सव्वेसिं । खिप्पं तु लोयकरणं, परिण्ण गणभेद बारसमं ॥ ....... मंगलं - संतिनिमित्तं थओ तओ अजितसंतीणं ॥ खमणे य असज्झाए, रातिणिय महाणिणाय णितए वा । सेसेसु णत्थि खमणं, णेव असज्झाइयं होइ ॥
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(बृभा ५५४४, ५५४५, ५५४७, ५५४९, ५५५०) शव का परिष्ठापन करने के बाद यदि वह व्यंतराधिष्ठित होकर दो-तीन बार उपाश्रय में आ जाए तो मुनि अपने-अपने तपयोग की परिवृद्धि करें- एकाशन करने वाले उपवास, उपवास करने वाले बेला आदि करें। योगवृद्धि करने पर भी गुह्यक आए. एक, दो या उपस्थित सभी श्रमणों के नाम ले तो उन-उन नाम वाले श्रमणों को लुंचन करा लेना चाहिए और पांच दिन का उपवास करना चाहिए। जो इतना तप न कर सकें, उन्हें चार, तीन, दो या एक उपवास करना चाहिए। गण से निष्क्रमण कर विहरण करना चाहिए। उपद्रवनिवारण और शांति के लिए अजितस्तवन और शांतिस्तवन का पाठ करना चाहिए।
यदि रानिक- आचार्य आदि अथवा महानिनाद (लोकविश्रुत) मुनि दिवंगत होता है और उसके ज्ञातिजन अत्यंत अधीर हो जाते हैं, तो उस दिन उपवास किया जाता है और अस्वाध्यायिक रहता है । अन्य साधु के कालगत होने पर न उपवास किया जाता है और नही अस्वाध्यायिक होता है।
१०. मृतक के पात्र आदि की विधि
... अत्थियाइं त्थ केइ साहम्मियसंतिए उवगरणजाए
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