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महास्थंडिल
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आगम विषय कोश-२
चाहिए। तत्पश्चात् उसको उन वस्त्रों सहित एक डोरी से हो, मूढ मत हो। अन्यअधिष्ठित कलेवर विकराल रूप दिखाकर बांधकर, उस डोरी को ढांकने के लिए तीसरा अति उज्ज्वल डराए , चिल्लाए या भयंकर अट्टहास करे, फिर भी सुविहित मुनि वस्त्र ऊपर डाल देना चाहिए। सामान्यतः तीन वस्त्रों का उपयोग निर्भयता से विधिपूर्वक शव का व्युत्सर्ग करे। अवश्य होना चाहिए और आवश्यकतावश अधिक वस्त्रों का भी रात्रिजागरण-प्राचीन विधि के अनुसार जो मुनि निद्राजयी, उपयोग किया जा सकता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढांकने से उपायकुशल, महापराक्रमी, धैर्यसम्पन्न, कृतकरण (उस विधि प्रवचन की अवज्ञा होती है। मलिन वस्त्रों के कारण दो प्रकार के ज्ञाता), अप्रमत्त और अभय होते थे, वे मृतक के पास की हानि होती है-सम्यक्त्व और प्रव्रज्या ग्रहण करने के रहकर रात्रिजागरण करते थे। रात्रि में वे परस्पर धर्मचर्चा करते इच्छुक व्यक्ति लौट जाते हैं। अत: नवीन और प्रमाणोपेत वस्त्र अथवा उपस्थित श्रावकों को धर्मकथा सुनाते अथवा स्वयं सूत्र धारणीय हैं।
या धार्मिक आख्यानक का स्वाध्याय मधुर वाणी में उच्च स्वर ४. मृतक-निर्हरणक्रियाविधि, रात्रिजागरण
से करते थे। वातेण अणक्कंते, अभिणवमुक्कस्स हत्थ-पादे उ। ५. सार्धक्षेत्र आदि नक्षत्रों का अवलोकन कवंतऽहापणिहिते, मह-णयणाणं च संपुडणं॥ टोणि य दिवइखेत्ते. दब्भमया पुत्तगऽत्थ कायव्वा। कर-पायंगटे दोरेण बधिउ पुत्तीए मुह छाए। समखेतमि य एक्को, अवड अभिए ण कायव्वो॥ अक्खयदेहे खणणं, अंगुलिविच्चे ण बाहिरतो॥
कालगते सति संयते नक्षत्रं विलोक्यते।..."नक्षत्रे अण्णाइट्ठसरीरे, पंता वा देवतऽत्थ उद्वेज्जा।
__विलोकिते यदि सार्द्धक्षेत्रं तदानीं नक्षत्रम्, सार्द्धक्षेत्रं नामपरिणामि डब्बहत्थेण बुज्झ मा गुज्झगा! मुज्झ॥
पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तभोग्यं सार्द्धदिनभोग्यमिति यावत्, तदा वित्तासेज्ज रसेज्ज व, भीमं वा अट्टहास मुंचेज्जा।
दर्भमयौ द्वौ पुत्रको कर्तव्यौ। यदि न करोति तदाऽपरं साधुअभिएण सुविहिएणं, कायव्व विहीय वोसिरणं ॥
द्वयमाकर्षति।तानि च सार्द्धक्षेत्राणि नक्षत्राणि षड् भवन्ति, (बृभा ५५२१, ५५२४-५५२६)
तद्यथा-उत्तराफाल्गुन्य उत्तराषाढा उत्तराभद्रपदा: पुनर्वसू जितणिहुवायकुसला, ओरस्सबली य सत्तजुत्ता य।
रोहिणी विशाखा चेति। अथ समक्षेत्रं-त्रिंशन्मुहूर्त भोग्यं कतकरण अप्पमादी, अभीरुगा जागरंति तहिं॥
यदा नक्षत्रं तत एकः पुत्तलकः कर्त्तव्यः 'एष ते द्वितीयः' इति जागरणट्ठाएँ तहिं, अन्नेसिं वा वि तत्थ धम्मकहा।
च वक्तव्यम्।अकरणेऽपरमेकमाकर्षति। समक्षेत्राणि चामूनि सुत्तं धम्मकहं वा, मधुरगिरो उच्चसद्देणं॥
पञ्चदश-अश्विनी कृत्तिका मृगशिरः पुष्यो मघाः पूर्वा(बृभा ५५२२, ५५२३)
फाल्गुन्यो हस्तश्चित्रा अनुराधा मूलं पूर्वाषाढाः श्रवणो वायु से शरीर अकड़ न जाए, इसलिए साधु के कालगत
धनिष्ठाः पूर्वभद्रपदा रेवती चेति। अथापार्द्धक्षेत्रं-पञ्चहोते ही उसके हाथ-पैरों को सीधा लम्बा फैलाकर, मुंह तथा .
दशमुहूर्तभोग्यं तद् नक्षत्रम् अभीचिर्वा तत एकोऽपि पुत्तलको आंखों को संपुटित कर दिया जाता है। मृतक के हाथ-पैर के ।
न कर्तव्यः । अपार्द्धक्षेत्राणि चामूनि षट्-शतभिषग् भरणी अंगूठों को रस्सी से बांधकर, मुखवस्त्रिका से मुंह को ढांक
आर्द्रा अश्लेषा स्वातियेष्ठा चेति। (बृभा ५५२७ वृ) दिया जाता है। उसके अक्षत देह में अंगुलि के बीच के पर्व का कुछ छेदन किया जाता है। इस प्रकार बंधन-छेदन करने पर भी मुनि के कालगत होने पर नक्षत्र का अवलोकन किया जाता यदि शरीर व्यंतर अधिष्ठित हो जाए या कोई प्रत्यनीक देव है। सत्ताईस नक्षत्र तीन रूपों में विभक्त हैंकलेवर में प्रवेश कर उत्थित हो तो मुनि अपने बाएं हाथ में मूत्र १. सार्धक्षेत्र नक्षत्र-पैंतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग लेकर उसका सिंचन करे और कहे-गुह्यक ! सचेत हो, सचेत करने वाले-यानी सार्ध दिन चन्द्रभोग्य नक्षत्र। (तीस मुहूर्त का
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