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आगम विषय कोश-२
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मुद्रा
परिहरणारिहे, कप्पड़ से सागारकडं गहाय दोच्चं पि ओग्गहं ...... वन्दन-नमस्कार कर कहते हैं-देवानुप्रिय का अन्तेवासी अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरेत्तए॥
स्कन्दक नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र और उपशांत था ......"सागारकृतं नाम नात्मना स्वीकरोति आचार्यसत्क- उसने देवानुप्रिय की आज्ञा पाकर स्वयं ही पांच महाव्रतों की मेतत्। आचार्य एव एतस्य ज्ञायक एवं गृहीत्वा आचार्याणां आरोहणा की, श्रमण-श्रमणियों से क्षमायाचना की, हमारे साथ समर्पयेदिदं आचार्यस्तस्यैव ददाति, ततः स 'मस्तकेन वन्दे' धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा यावत् एक मास की संलेखना से इति ब्रुवाण आचार्यवचः प्रमाणं करोति-एष द्वितीयो- अपने आपको कृश बनाया, अनशन के द्वारा साठ भक्त (भोजन के ऽवग्रहः""।
(व्य ७/२२ व) समय) का छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर
समाधिपूर्णदशा में क्रमशः दिवंगत हो गया। ये प्रस्तुत हैं उसके मृत साधर्मिक श्रमण का कोई उपकरण परिभोगयोग्य हो.
साधुजीवन के उपकरण।'-भ २/७०) तो उसे सागारकृत-यह मेरा नहीं, आचार्य का है, आचार्य ही
११. मृत शरीर के आधार पर सुभिक्ष, दुर्भिक्ष इसके ज्ञाता हैं-इस भावना से ग्रहण कर आचार्य को समर्पित करे। (यह प्रथम अवग्रह है) आचार्य वह उपकरण उसे दे तो
जं दिसि विगड्डितो खलु, देहेणं अक्खुएण संचिक्खे।
तं दिसि सिवं वदंती, सुत्त-ऽत्थविसारया धीरा॥ वह 'मस्तकेन वन्दे' इसका उच्चारण करता हुआ वन्दन कर
जति दिवसे संचिक्खति, तति वरिसे धातगं च खेमं च। गुरुवचन को प्रमाण माने-यह द्वितीय अवग्रह है, उसे अनुज्ञापित
विवरीए विवरीतं, अकड्डिए सव्वहिं उदितं॥ कर वह उसका ग्रहण-परिभोग कर सकता है।
(बृभा ५५५५, ५५५६) उच्चार-पासवण-खेलमत्तगा य अत्थरण कुस-पलालादी।
जिस दिशा में मृतक का शरीर शृगाल आदि द्वारा आकर्षित संथारया बहुविधा, उज्झंति अणण्णगेलन्ने॥ होता है और अक्षत रहता है, उस दिशा में सुभिक्ष और सुखविहार अहिगरणं मा होहिति, करेइ संथारगं विकरणं तु। होता है-ऐसा सूत्र-अर्थ के पारगामी धीर मुनि कहते हैं। जितने सव्ववहि विगिंचंती, जो छेवइतस्स छित्तो वि॥ दिन तक वह कलेवर जिस दिशा में अक्षतरूप में स्थित होता है, .
(बृभा ५५५१, ५५५२) उस दिशा में उतने ही वर्षों तक सुभिक्ष रहता है तथा शत्रु आदि के मृत साधु के उच्चारपात्र, प्रश्रवणपात्र, श्लेष्मपात्र तथा आस्तरण उपद्रवों का अभाव रहता है। इसके विपरीत यदि उसका शरीर के लिए कृत, कुश, पलाल आदि के बहविध संस्तारकों का क्षत-विक्षत हो जाता है तो उस दिशा में दर्भिक्ष तथा शत्र आदि के परिष्ठापन कर देना चाहिए। यदि कोई बीमार मनि है तो उसके उपद्रव उत्पन्न होते हैं। यदि वह मृतक-शरीर उसी स्थान पर लिए इनका उपयोग भी किया जाता है।
अक्षत रहता है तो सर्वत्र सुभिक्ष और सुखविहार होता है। ___कोई मुनि महामारी आदि किसी छूत की बीमारी से मरा हो, मासकल्प-शेषकाल (ऋतुबद्धकाल के आठ महीनों) जिस संस्तारक से उसे ले जाया जाए, उसके टुकड़े-टुकड़े कर
में मुनि की एक क्षेत्र में रहने की एक मास की परिष्ठापन कर देना चाहिए। उसी प्रकार अन्य उपकरण उसके
अवधि।
द्र कल्पस्थिति शरीर से छए गए हों, उनका भी परिष्ठापन कर देना चाहिए। * यथालंद और मासकल्प
द्र यथालन्दकल्प __(मुनि का परिनिर्वाण होने पर कायोत्सर्ग और उपकरणसमर्पण विधान है। 'भगवान महावीर के शिष्य स्कन्दक अनगार
मिथ्यात्व-अतत्त्व में होने वाली तत्त्वश्रद्धा। द्र सम्यक्त्व को दिवंगत जानकर वहां उपस्थित स्थविर मुनि कायोत्सर्ग करते मुद्रा-दीनार आदि सिक्के। हैं, कायोत्सर्ग कर उसके पात्र और चीवरों को लेकर, विपुल पर्वत कवड्डगमादी तंबे, रुप्पे पीते तहेव केवडिए।... से नीचे उतरकर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं, ताम्रमयं वा नाणकं यद् व्यवह्रियते, यथा-दक्षिणापथे
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