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आगम विषय कोश-२
४६७
महास्थंडिल
१. शवपरिष्ठापन हेतु भूमि-प्रतिलेखना
२. महास्थंडिल-दिशाप्रेक्षा और लाभ-हानि 'महास्थण्डिलं' शवपरिष्ठापनभूमिलक्षणं...। दिस अवरदक्खिणा दक्खिणा य अवरा य दक्खिणापुव्वा।
(बृभा १५०५ की वृ) अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तर पुव्वुत्तरा चेव॥ पुव्विं दव्वोलोयण, नियमा गच्छे उवक्कमनिमित्तं।। पउरन्न-पाण पढमा, बीयाए भत्त-पाण न लहंति । भत्तपरिण गिलाणे, पुव्वुग्गहो थंडिलस्सेव॥ तइयाइ उवहिमाई, चउत्थी सज्झाय न करिंति॥
यत्र साधवो मासकल्पं वर्षावासं वा कर्तुकामास्तत्र पंचमियाएँ असंखड, छट्ठीऍ गणस्स भेयणं जाण। .....।"पूर्वमेव महास्थण्डिलस्य वहनकाष्ठादेश्च अवग्रहः' सत्तमिया गेलन्नं, मरणं पुण अट्ठमीए उ॥ प्रत्युपेक्षणं विधेयम्। (बृभा ५४९९ वृ)
(बृभा १५०६-१५०८) गच्छवासी (स्थविरकल्पी) साधु जहां मासकल्प अथवा दक्षिणपश्चिम दिशा (नैर्ऋती) में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा वर्षावास करना चाहते हैं, वहां पहले ही वहनकाष्ठ आदि द्रव्यों सबसे श्रेष्ठ है। उसके अभाव में दक्षिण दिशा, उसके अभाव में का नियमतः अवलोकन करते हैं। क्योंकि भक्तपरिज्ञा अनशन पश्चिम दिशा, उसके अभाव में दक्षिण-पूर्व (आग्नेयी), उसके करने वाले अथवा रोगी आदि साधु का उपक्रम-मरण हो सकता अभाव में पश्चिम उत्तर (वायवी), उसके अभाव में पूर्व, उसके है। अतः सर्वप्रथम महास्थण्डिल-शवपरिष्ठापनयोग्य भूमि का अभाव में उत्तर, उसके अभाव में पूर्व-उत्तर (ईशानी) दिशा में प्रत्युपेक्षण करना चाहिये।
महास्थंडिल की प्रत्यपेक्षा करनी चाहिए। आसन्न मज्झ दूरे, वाघातट्ठा तु थंडिले तिन्नि। नैर्ऋती में महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करने से अन्नखेत्तुदय हरिय-पाणा, णिविट्ठमादी व वाघाए॥ पान का प्रचुर लाभ होता है, इससे समूचे संघ में समाधि होती
(बभा ५५०७) है। दक्षिण दिशा में प्रत्युपेक्षण करने से अन्न-पान का अभाव स्थंडिल के तीन प्रकार हैं-१. गांव के नजदीक २. बीच।
नदी सीन और पश्चिम में करने से उपकरणों का अलाभ होता है। में ३. गांव से दर। इन तीनों की अपेक्षा इसलिए है कि एक के आग्नेयी में करने से साधुओं में परस्पर तं-तं मैं-मैं होती है। अव्यवहार्य होने पर दसरा स्थंडिल काम में आ सके। संभव है. वायवी में करने से साधुओं में परस्पर कलह बढ़ता है। पूर्व में देखे हए स्थंडिल को खेत के रूप में परिवर्तित कर दिया गया हो,
करने से गणभेद होता है। उत्तर में करने से रोग बढ़ता है। उस क्षेत्र में पानी का जमाव हो गया हो. हरियाली और त्रस ईशानी में महास्थंडिल होने से दूसरा कोई साध (निकट काल प्राणियों का उद्भव हो गया हो, अथवा नया गांव बसा दिया गया
में) मृत्यु को प्राप्त होता है। हो अथवा किसी सार्थ ने पडाव डाल दिया हो।
३. शव ढांकने योग्य वस्त्र का स्वरूप गामाणुगामं दूइज्जमाणे भिक्खूय आहच्च वीसंभेज्जा वित्थारा-ऽऽयामेणं, जं वत्थं लब्भती समतिरेगं । तं च सरीरगं केइ साहम्मिया पासेज्जा, कप्पइ से तं सरीरगं चोक्ख सुतिगं च सेतं, उवक्कमट्ठा धरेतव्वं ॥ 'मा सागारियं'ति कट्टथंडिले बहुफासुए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता । अत्थुरणट्ठा एगं, बिइयं छोढुमुवरिं घणं बंधे। परिट्ठवेत्तए।
(व्य ७/२२) उक्कोसयरं उवरिं, बंधादीछादणट्ठाए। ग्रामानुग्राम विहरण करता हुआ भिक्षु कदाचित् कालधर्म उज्झाइए अवण्णो, दुविह णियत्ती य मइलवसणाणं। को प्राप्त हो जाए और उसके शरीर को कोई साधर्मिक मुनि देखे तम्हा तु अहत कसिणं, धरेंति...... । तो वह 'यहां कोई गृहस्थ नहीं है'- यह जानकर, अत्यंत प्रासुक
(बृभा ५५१०, ५५११, ५५१३) स्थण्डिल का प्रतिलेखन-प्रमार्जन कर वहां शव का परिष्ठापन कर मृतक को ढाई हाथ लम्बे, सफेद और सुगंधित वस्त्र से सकता है।
ढांकना चाहिए। उसके नीचे भी वैसा ही एक वस्त्र बिछाना
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