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आगम विषय कोश - २
० आहार्य - पानी के साथ खाने योग्य चूर्ण आदि । २. अनाहार्य - चंदन आदि का घर्षण करना, वस्त्र को सुगंधित द्रव्य से वासित करना, अगरु आदि से धूपित करना, पादतल पर लेप करना, जिससे दूर तक जल के ऊपर चला जा सके। ० योगसिद्ध आचार्य - आभीर जनपद में कृष्णवेना नदी के तट पर ब्रह्मद्वीप था, वहां पांच सौ तापसों का आश्रम था । तापस- कुलपति पादलेपयोग जानता था। वह अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वतिथियों में पादलेपयोग के प्रभाव से वेना नदी को पार कर वेनातट नगर में पहुंच जाता। वह जल पर ऐसे चलता, जैसे कोई भूमि पर चल रहा हो। उस नगर के सब लोग आकृष्ट होकर भोजन - पानी से उसका सत्कार करते। कुछ लोग श्रावकों की अवहेलना करने लगेतुम्हारे जिनशासन में ऐसा अतिशय नहीं है।
एक बार वज्रस्वामी के मातुल समिताचार्य विहार करते हुए वहां आये । श्रावकों ने वहां की स्थिति बताई। आचार्य ने कहायह मायावी है, पादलेप के प्रभाव से नदी पार करता है, अतः तुम लोग इसे अपने घर पर निमंत्रित कर गर्म जल से पैरों का प्रक्षालन करो । श्रावकों ने प्रयत्नपूर्वक यह कार्य किया । तापस नहीं चाहता था, पर श्रावकों ने कहा- आपके भक्त विनयपरिपाटि को नहीं जानते। हम आपका विनय करते हैं, यह कहते हुए उसके पैर धो डाले, फिर उसे भिक्षा दी और पहुंचाने नदी तट पर गए। लेप धुल जाने के कारण तापस डूबने लगा । इतने में आर्य समित आए, द्रव्ययोग का प्रक्षेप कर बोले-वेना! मुझे मार्ग दो । तत्काल दोनों तट सिमट गए, नदी पदमात्र वाहिनी हो गई। आचार्य उस तट पर पहुंचे, पीछे से नदी पुनः बड़ी हो गई। सब लोग तथा ताप विस्मित हुए। पांच सौ तापस आचार्य के पास प्रव्रजित हो गए, तब ब्रह्मद्वीप शाखा प्रवर्तित हुई ।
१५. योनिप्राभृतग्रंथ : अश्व उत्पादन
योनिप्राभृतादिना यदेकेन्द्रियादिशरीराणि निर्वर्त्तयति, यथा सिद्धसेनाचार्येणाश्वा उत्पादिताः । (बृभा २६८१ की वृ)
योनिप्राभृत आदि ग्रंथों में ऐसे योग-द्रव्यों के मिश्रण की प्रक्रिया प्रतिपादित है, जिसके प्रयोग से एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों के शरीर का निर्माण किया जा सकता है। यथा - आचार्य सिद्धसेन ने अश्वों का उत्पादन किया था।
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मंत्र - विद्या
महिष, सर्प आदि का उत्पादन भी किया गया था। इसे निर्वर्त्तना अधिकरण कहा गया है।-द्र अधिकरण
(सूयगडो २/२/१८ में छब्बीस प्रकार की विद्याओं का नामोल्लेख है - १. सुभगाकर - दुर्भाग्य को सुभाग्य करने वाली विद्या । २. दुर्भगाकर - सुभाग्य को दुर्भाग्य करने वाली विद्या । ३. गर्भकर - गर्भाधान की विद्या । ४. मोहनकर - वाजीकरण विद्या । ५. आथर्वणी - अथर्ववेद के मंत्र । ६. पाकशासनीइन्द्रजाल विद्या । ७. द्रव्यहोम - उच्चाटन आदि के लिए की जाने वाली हवन क्रिया । ८. वैताली - इच्छित देश-काल में
दंडे को ऊंचा उठाने वाली विद्या । ९. अर्धवैताली - वैताली की प्रतिपक्षी विद्या । इससे दंडा नीचे आ गिरता है । १०. अवस्वापिनी - निद्रा दिलाने वाली विद्या । ११. तालोद्घाटिनीताले को खोलने वाली विद्या । १२. श्वपाकी - मातंगी विद्या । १३. शाबरी - शबर भाषा में निबद्ध विद्या । १४. द्राविड़ीतमिल भाषा में निबद्ध विद्या । १५. कालिंगी - कलिंग देश की भाषा में निबद्ध विद्या । १६. गौरी - एक मातंग विद्या । १७. गांधारी - एक मातंग विद्या । १८. अवपतनी - नीचे गिराने वाली विद्या । १९. उत्पतनी - ऊंचा उठाने वाली विद्या । २०. जृम्भणी - उबासी लाने वाली विद्या । २१. स्तम्भनीस्तंभित करने वाली विद्या । २२. श्लेषणी - जंघा और ऊरु को आसन से चिपकाने वाली विद्या । २३. आमयकरणी-रोग पैदा करने वाली विद्या । २४. विशल्यकरणी - शल्य को निकालने वाली विद्या, औषधिज्ञान । २५. प्रक्रामणी - भूत दूर करने वाली विद्या । २६. अन्तर्धानी - अदृश्य होने की विद्या । ) १६. विद्यासिद्धि का काल उपचार आदि
कालादिउवयारेणं, विज्जा न सिज्झए विणा देति । रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा वा से तहिं ॥
कालाद्युपचारेण विना विद्या न सिध्यति, न केवलं न सिध्यति किन्तु कालादिवैगुण्यलक्षणे 'रन्ध्रे' छिद्रे सति साधिकृतविद्याधिष्ठ्यऽन्या वा क्षुद्रदेवता तत्रावसरे अवध्वंसं ददाति । (व्यभा ३०१८ वृ)
कालोचित, देशोचित आदि उपचारों के बिना विद्या सिद्ध नहीं होती। वह सिद्ध तो होती ही नहीं, किन्तु अकाल आदि छिद्र
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