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मंत्र-विद्या
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आगम विषय कोश-२
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करते हुए रोगी मुनि का अपमार्जन किया जाता है । चापेटी विद्या से उसे पादप्रहार से प्रताड़ित कर चली गई। शकों ने निर्बल गर्दभिल्ल अन्य के चांटा मारकर अन्य का ही अपमार्जन किया जाता है। का उन्मूलन कर अवन्ति पर अपना अधिकार जमा लिया।
साध्वी के लिए भी विद्याप्रयोग की यही यतनाविधि ज्ञातव्य १३. मातंग-विद्या : गौरी-गांधारी है। विद्या ससाधन होती है अतः साध्वी को विद्या नहीं देनी
...'गोरी-गंधारीया, दुहविण्णप्या य दुहमोया॥ चाहिए। मंत्र असाधन होता है, वह कदाचित् दिया जा सकता है।
गोरि-गंधारीओ मातंगविज्जाओ साहणकाले लोगयदि साधु अकुशल हों और साध्वी कुशल हो तो वह पूर्वगृहीत
गरहियत्तणतो दुहविण्णवणाओ। (निभा ५१५८ चू) मंत्र या विद्या से साधु के विष का अपनयन करती है। १२. गर्दभी विद्या : गर्दभिल्ल नृप
गौरी और गांधारी-ये दोनों मातंग-विद्याएं हैं । इन विद्याओं
की साधना लोक गर्हित होती है, अतः ये दुःखविज्ञप्या तथा यथेष्ट ___.. गद्दभिल्लस्स एक्का विज्जा गद्दहीरूवधारिणी
कामसम्प्रापकता के कारण दुःखमोचा हैं। अत्थि। सा य एगम्मि अट्टालगे परबलाभिमुहा ठविया। ताहे परमे आधिकप्पे गद्दभिल्लो राया अट्टमभत्तोववासी तं * गौरी आदि महाविद्याएं द्र श्रीआको १ मंत्र-विद्या अवतारेति।ताहेसा गद्दभी महंतेण सद्देण णदति, तिरिओ मणुओ . १४. योगपिण्ड : तापस और आर्य समित वा जो परबलिच्चो सई सुणेति स सव्वोरुहिरंवमंतो भयविहलो पादलेवादिजोगेहिं आउट्टेउं जो पिंडं उप्पादेति। णट्ठसण्णो धरणितलं णिवडइ।
(नि १३/७३ की चू) कालगज्जो. सद्दवेहीण दक्खाणं अट्ठसतं जोहाण
सूभगदूभग्गकरा, जे जोगाऽऽहारिमे य इतरे य। णिरूवेति-'जाहे एस गद्दभी मुहं विडंसेति जाव य सदं ण
आघंस वास धूवा, पादपलेवाइणो इतरे॥ करेति ताव जमगसमगं सराण मुहं पूरेज्जेह।' तेहिं पुरिसेहिं
णदिकण्हवेण्णदीवे, पंचसया तावसाण णिवसंति। तहेव कयं। ताहे सा वाणमंतरी तस्स गद्दभिल्लस्स उवरिं
पव्वदिवसेसु कुलवती, पादलेवुत्तारसक्कारो॥ हदिउं मुत्तेउं वलत्ताहि य हंतुंगता।सो वि य गद्दभिल्लो अबलो
जण सावगाण खिंसण, समियक्खण मातिठाण लेवेणं। उम्मूलिओ। उहिया उज्जेणी। (निभा २८६० की चू)
सावगपयत्तकरणं, अविणयलोए चलणधोए॥ उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल के पास रासभी का रूप धारण पडिलाभित वच्चंता, णिबुड्डु णदिकूलमिलण समिताए। करने वाली गर्दभी विद्या थी। जब शकसामंतों ने अवन्ति पर
विम्हय पंचसया तावसाण पव्वज्ज साहा य॥ आक्रमण किया तो उसने एक अट्टालक पर गर्दभी विद्या को
आभीरविसए कण्हवेण्णा णाम नदी। तस्स कूले स्थापित किया, जिसका मुख शत्रुसेना की ओर था। कालकाचार्य
बंभद्दीवो।.."अण्णदा वइरसामीमाउलो समियायरिओ द्वारा शकसामंतों को ज्ञात हुआ कि गर्दभिल्ल अष्टमी-चतुर्दशी को
विहरंतो तत्थागतो."भणंति आयरिया-वेण्णे! कम देहि अष्टोत्तर सहस्र जप पूर्वक रासभी विद्या की सिद्धि करता है। वह
त्ति। ताहे दो वि तडीओ आसण्णं ठिताओ कममेत्तवाहिणी तीन दिन का उपवास कर गर्दभी का अवतारण करता है। वह तेज
जाता।आयरिया एगक्कमेण परतीरं गता, पिट्ठओ णदी महंती आवाज में रेंकती है। शत्रुसेना के तिर्यंच और मनुष्य जो भी उसके
जाता"तेय पंचतावससया समियायरियस्स समीवे पव्वतिता। शब्द को सुनते हैं, वे सब रुधिर का वमन करने लगते हैं,
ततो य बंभद्दीवा साहा संवुत्ता। (निभा ४४६९-४४७२ चू) भयविह्वल और संज्ञाशून्य होकर धरती पर गिर पड़ते हैं। कालकाचार्य के निर्देश के अनुसार शत्रुसेना के शब्दवेधकला
आकाशगमन आदि के साधक द्रव्यों का मिश्रण योग है। में दक्ष एक सौ आठ योद्धाओं ने गर्दभी का मुंह खुलते ही तत्काल योग प्रयोग से भिक्षा प्राप्त करना सदोष है। योग दुर्भाग्य को एक साथ बाणों से उसका मुंह भर दिया। इससे गर्दभी रूप सुभाग्य और सुभाग्य को दुर्भाग्य कर देता है । वह दो प्रकार वानव्यंतरी कपित हई और गर्दभिल्ल पर मलमत्र विसर्जित कर का है
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