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आगम विषय कोश-२
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मंत्र-विद्या
जिस विद्या से मन से चिंतन कर जितना पाने की इच्छा की अपने अंग का प्रमार्जन करने पर रोगी स्वस्थ हो जाता है। जाती है. उतना प्राप्त हो जाता है, वह मानसी विद्या है। ० दर्भ विद्या-वह विद्या, जिससे दर्भ के द्वारा प्रमार्जन करने पर १०. विद्याचक्रवर्ती
रोगी नीरोग हो जाता है। ...."विज्ञानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं।
० व्यजन विद्या-वह विद्या, जिससे व्यजन (पंखे) को अभिमन्त्रित विज्जा भवति सा चेह. देसे काले य सिज्यति॥ कर उससे रोगी का अपमार्जन करने पर रोगी स्वस्थ हो जाता है।
० तालवृन्त विद्या-वह विद्या, जिससे तालवन्त को अभिमंत्रित (व्यभा ३०२०)
कर उससे रोगी का अपमार्जन करने से वह स्वस्थ हो जाता है। विद्याचक्रवर्ती जो कुछ भी बोलता है, वह विद्या में परिणत . चापेटी विद्या-वह विद्या, जिससे किसी दूसरे के चांटा जड़ने हो जाता है। वह विद्या इस लोक में देशोचित और कालोचित सेरोगी स्वस्थ हो जाता है। उपचार से सिद्ध होती है।
(यद्यपि ये विद्याएं साध के सर्पदंश की चिकित्सा के प्रसंग ११. दूती आदि विद्याएं : सर्पदंशचिकित्सा
में निर्दिष्ट हैं। किन्तु प्रतीत होता है कि ये विद्याएं विषापहार तथा दती अहाए ता, वत्थे अंतेउरे य दब्भे वा। सर्व रोगापनयन के लिए प्रयक्त होती थीं।) वियणे य तालवंटे, चवेड ओमज्जणा ....॥ काचिद् दूतविद्या भवति। तया च दूतविद्यया यो दूत
० साधु-साध्वी-चिकित्सा : विद्याप्रयोग विधि आगच्छति, तस्य दंशस्थानमपमार्व्यते। तेनेतरस्य दंशस्थानमु
दूयस्सोमाइज्जइ, असती अद्दाग परिजवित्ताणं। पशाम्यति। आदर्शविद्या तया आतुर आदर्श प्रतिबिम्बितो
परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ तेण वोमाए॥ ऽपमाय॑ते, आतुरः प्रगुणो जायते। अन्या विद्या वस्त्रविषया भवति
एवं दब्भादीसु, ओमाएऽसंफुसंत हत्थेणं। तया परिजपितेन वस्त्रेण वा प्रमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति।
चावेडीविज्जाएँ व, ओमाए चेडयं दितो॥ 'यया आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनोअंगमपमार्जयति, आतुरश्च
एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो। प्रगुणो जायते, सा आन्तःपुरिकी।"दर्भविषा भवति विद्या,
विज्ञादी मोत्तूणं, अकुसलकुसले य करणं च॥ यया दभैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति। व्यजनविषया
मंतो हवेज्ज कोई, विज्जा उ ससाहणा न दायव्वा। भवति विद्या, यया व्यजनमभिमन्त्र्य तेनातुरोऽपमृज्यामनः
....."पुव्वाधीता य उ करेज्जा। स्वस्थो भवति, सा व्यजनविद्या। एवं तालवृन्तविद्यापि
(व्यभा २४४०-२४४३) भावनीया।"यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः __(किसी मुनि को सर्प काट खाये और कोई मुनि या गृहस्थ स्वस्थीभवति, सा चापेटी।
(व्यभा २४३९ वृ) विष को उतारने में कुशल न हो तो साध्वी से उसका अपमार्जन सर्पदंशचिकित्सा के लिए प्रयुक्त विद्या के अनेक प्रकार हैं- कराया जा सकता है।) • दूतीविद्या-जो दूत उपस्थित होता है, उसके दंशस्थान का इस दूती विद्या से आगत दूत के अंग का अपमार्जन किया जाता विद्या के द्वारा अपमार्जन किया जाता है, इससे दूसरे का दंशस्थान है, इससे रोगी मुनि स्वस्थ हो जाता है। उपशांत (सांप द्वारा काटा गया अवयव स्वस्थ) हो जाता है। इस विद्या के अभाव में आदर्श में संक्रांत रोगी मुनि के ० आदर्श विद्या-वह विद्या, जिससे दर्पण में प्रतिबिंबित रोगी के प्रतिबिम्ब को पोंछकर उसे स्वस्थ किया जाता है। बिम्ब को पोंछने से वह नीरोग हो जाता है।
आदर्श विद्या के अभाव में वस्त्र-विद्या से परिजपित ० वस्त्र विद्या-वह विद्या, जिससे परिजपित वस्त्र से रोगी के (अभिमंत्रित) वस्त्र से रोगी मुनि को प्रावृत किया जाता है, अथवा अंग को प्रमार्जित कर उसे स्वस्थ कर दिया जाता है।
परिजपित वस्त्र से रोगी का अपमार्जन किया जाता है। ० आन्त:पुरिकी विद्या-वह विद्या, जिससे रोगी का नाम लेकर इसी प्रकार दर्भ आदि विद्याओं के द्वारा हाथ से स्पर्श न
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