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महाव्रत
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आगम विषय कोश-२
महाव्रत भावदिशाओं-एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों के लिए सुरक्षास्थान हैं - यह अनंतज्ञानी सर्वभूतसंयत अर्हत् द्वारा प्रवेदित है। जो तमस को नष्ट कर ऊर्ध्व, अध: और तिर्यक-इन तीनों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले तैजस की भांति सब प्राणियों के प्रकाशक तथा संरक्षक और कल्याणकारक हैं, उन महाव्रतों को कायरपुरुषों द्वारा दुर्वह होने से महागुरु और कर्मअपनयनकारक होने से नि:स्वकर कहा गया है। २. द्रव्यतः-भावतः हिंसा-अहिंसा
अप्पेव सिद्धतमजाणमाणो, तं हिंसगं भाससि जोगवंतं। दव्वेण भावेण य संविभत्ता, चत्तारि भंगा खलु हिंसगत्ते॥ आहच्च हिंसा समितस्स जा तू, सा दव्वतो होति ण भावतो उ। भावेण हिंसा तु असंजतस्सा, जे वा वि सत्तेण सदा वधेति॥ संपत्ति तस्सेव जदा भविज्जा, सा दव्वहिंसा खलु भावतो य। अज्झत्थसुद्धस्स जदाण होज्जा, वधेण जोगो दुहतोवऽहिंसा॥
नहि सिद्धान्ते योगमात्रप्रत्ययादेव हिंसोपवर्ण्यते, अप्रमत्तसंयतादीनां सयोगिकेवलिपर्यन्तानां योगवतामपि तदभावात्।"हिं सायां व्याप्रियमाणकाययोगोऽपि भावत उपयुक्ततया भगवद्भिरहिंसक एवोक्तः।
(बृभा ३९३२-३९३४ वृ) जो निर्ग्रन्थप्रवचन के रहस्य को नहीं जानते, वे योगमात्रप्रत्ययिक हिंसा का निरूपण करते हैं । वस्तुतः सिद्धान्त में ऐसा निरूपण नहीं है, क्योंकि अप्रमत्तसंयत से सयोगिकेवली पर्यन्त- सातवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थानपर्यंत जीव सयोगी होते हुए भी भावतः अहिंसक हैं।
द्रव्य और भाव की अपेक्षा से हिंसा के चार विकल्प हैं१. द्रव्यतः हिंसा, भावतः हिंसा नहीं-जो ईर्यासमिति आदि में उपयुक्त है, उसके कदाचित् द्रव्यहिंसा हो सकती है, भाव हिंसा नहीं। क्योंकि उसमें प्रमत्त योग का अभाव है। अर्हत् ने उसे अहिंसक कहा है, जिसका काययोग हिंसा में व्याप्त होने पर भी जो उपयोगयुक्त है। २. भावतः हिंसा, द्रव्यतः हिंसा नहीं-जो असंयत है अथवा संयत होते हुए भी उपयोग उपयुक्त नहीं है, उसके भावतः हिंसा होती है, द्रव्यत: नहीं, क्योंकि वह सदा प्राणवध नहीं करता।
३. द्रव्यत: हिंसा, भावतः हिंसा-असंयत व्यक्ति जब प्राणवध में प्रवृत्त होता है, तब उसके द्रव्यतः और भावतः हिंसा होती है। ४. न द्रव्यतः हिंसा, न भावतः हिंसा-जो चित्तप्रणिधान से शुद्ध है-उपयोग उपयुक्त होकर गमनागमन आदि क्रियाएं करता है, वह जब प्राणवध में प्रवृत्त नहीं है, तब उसके न द्रव्यतः हिंसा होती है और न भावतः हिंसा होती है। ३. अचौर्य महाव्रत की सक्षमता
तण-डगल-च्छार-मल्लग-लेवित्तिरिए य अविदिण्णे॥ लद्धं ण णिवेदेती, परिभुजति वा णिवेदितमदिण्णं....
.."इत्तिरिरो यत्ति पंथं वच्चंतो जत्थ विस्समिउ कामो तत्थोग्गहंणाणुण्णवेइ। (निभा ३३०, ३३३ चू)
स्वामी की अनुमति लिए बिना कोई वस्तु ग्रहण करना अदत्तादान है। यथा-तृण, ढेला, छार, शराव (पात्र विशेष), लेप (पात्ररंगण) आदि। इत्वरिक-मार्ग में चलते हुए जहां अल्पकालिक विश्राम करना हो, उस स्थान की अनुमति नहीं लेना भी अदत्तादान है। कोई साधु भिक्षाचर्या से लौटकर आहार आदि आचार्य को नहीं दिखाता है, निवेदन किए बिना ही परिभोग करता है अथवा निवेदन तो करता है पर बिना दिए ही भोग लेता है-यह सब अदत्तादान है।
(मुनि सूई, कैंची आदि प्रातिहारिक वस्तुएं स्वयं के लिए लाए तो दूसरों को न दे, जिस कार्य के लिए लाए, वही कार्य उनसे सम्पादित करे, अन्यथा वह दोष का भागी होता है।-द्र उपधि) ४. व्रतविभाग : ब्रह्मचर्य स्वतंत्र व्रत
आइक्खिउं विभइउं, विण्णाउं चेव सुहतर होइ। एतेण कारणेणं, महव्वया पंच पण्णत्ता॥
(आनि ३१५)
पांच महाव्रतों के रूप में व्यवस्थापित होने से संयमधर्म का आख्यान-व्याख्या, उसके विभाग का निरूपण (विभज्यवाद की शैली से कथन) और उसकी उपादेयता का विज्ञान सुगमता से होता है। इसलिए पांच महाव्रतों का प्रज्ञापन किया गया है।
(चतुर्याम धर्म अल्प विभाग वाला प्रतिपादन था। अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य-दोनों एक हैं-यह बात विज्ञ के लिए सहजगम्य
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