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आगम विषय कोश - २.
हो सकती है, किन्तु अज्ञ मनुष्य इसे नहीं समझ सकता। इस बुद्धि- क्षमता को ध्यान में रखकर भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत से पृथक् कर दिया। अतः इस विभाग का मुख्य तु है बुद्धि की ऋजुता और जड़ता । - द्र कल्पस्थिति
भगवान् महावीर के पहले से ही कुछ श्रमण अब्रह्मचर्य का अनेक दृष्टिकोणों से समर्थन कर रहे थे, जिसका सोदाहरण निरसन किया गया । द्र सू १/३/७०-७८ टि, नि ५१-५३
भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्व के चतुर्याम धर्म का विस्तार कर त्रयोदशांग धर्म की प्रतिष्ठा की। जैसे- १. अहिंसा २. सत्य ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह ६. ईर्या समिति ७. भाषा समिति ८. एषणा समिति ९ आदाननिक्षेप समिति १०. उत्सर्ग समिति १९. मनोगुप्ति १२. वचनगुप्ति १३. कायगुप्तिसत्तमगुप्तयस्तनुमनोभाषानिमित्तोदयाः,
तिस्रः पञ्चेर्यादिसमाश्रयः समितयः पञ्चव्रतानीत्यपि । चारित्र त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परैः, आचारं परमेष्ठिनो जिनमते वीरान् नमामो वयम् ॥ - पूज्यपादकृत चारित्रभक्ति, श्लोक ७
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• ईर्या - एषणा - उत्सर्ग-समिति, कायगुप्ति और मनोगुप्ति के सम्यक्
अभ्यास का अर्थ है - जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा ।
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• भाषासमिति और वचनगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ हैजीवन में सत्य की प्रतिष्ठा ।
कायगुप्ति और मनोगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ हैजीवन में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा ।
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कायगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है - जीवन में अपरिग्रह की प्रतिष्ठा । - श्रमण महावीर पृ १२४ )
५. मूलगुण : पांच महाव्रत
पाणवहादिया पंच मूलगुणा । ( निभा ६५३३ की चू) प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण, अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण - ये पांच महाव्रत मूलगुण हैं। ० उत्तरगुण : समिति आदि
पिंडस्स जा विसोधी, समितीओ भावणा तवो दुविधो । पडिमा अभिग्गा वि य, उत्तरगुण मो वियाणाहि ॥
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महाव्रत
बायाला अट्ठेव य, पणुवीसा बार बारस उ चेव । दव्वादि चउरभिग्गह, भेदा खलु उत्तरगुणाणं ॥ (व्यभा ४७०, ४७१ )
उत्तरगुणों की संख्या एक सौ तीन है
पिण्डविशोधि- उद्गम, उत्पादन तथा एषणा के बयालीस भेद । समिति - ईर्या आदि पांच समितियां तथा मन समिति, वाक्समिति और काय समिति । (इन तीनों को गुप्ति भी कहा जाता है।) भावना - पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं । तप - अनशन आदि बारह प्रकार का तप । प्रतिमा - एकमासिकी आदि बारह भिक्षुप्रतिमाएं। अभिग्रह - द्रव्य - क्षेत्र - काल- भाव अभिग्रह | उत्तरगुण के कुल भेद हैं- ४२ +८+ २५ +१२+१२+४ = १०३ । ६. रात्रिभोजनविरमण व्रत : छठा व्रत
पंच य महव्वयाई, तु पंचहा राइभोयणे छट्टा ।'' (आनि ३१४)
छह प्रकार का संयम है-पांच महाव्रत तथा छठा व्रतरात्रिभोजनविरमणव्रत ।
० रात्रि में अशन आदि का अग्रहण, शय्याग्रहण
नो कप्पइ निग्गंथाण राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेत्तए । नन्नत्थ एगेणं पुव्व पडिलेहिणं सेज्जा- संथारएणं ॥ नो कप्पराओ वा वियाले वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा पडिग्गाहेत्तए ।'' (क १ / ४२, ४३)
निर्ग्रथ रात्रि या विकालवेला में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण नहीं कर सकते। किन्तु पूर्वप्रतिलेखित शय्या-संस्तारक ग्रहण कर सकते हैं। वे रात्रि या विकाल में वस्त्र, पात्र, कंबल और पादप्रोंछन ग्रहण नहीं कर सकते। * रात्रिभोजन : एक अनाचार
द्र श्रीआको १ अनाचार (अर्हत् पार्श्व ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया। उसमें स्त्रीत्याग या ब्रह्मचर्य तथा रात्रिभोजनविरति — इन दोनों का स्वतंत्र स्थान नहीं था । श्रमण महावीर ने पांच महाव्रत धर्म का प्रतिपादन
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