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आगम विषय कोश - २
केवल वैहायस का विधान है। गृध्रस्पृष्ट की अर्थपरम्परा आलोच्य है। इसकी प्राचीनता भी संदिग्ध है। द्र भ २/४९ का भाष्य ) ३. मरण और गति
मरिऊण अट्टझाणो गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं वा।'''''' (व्यभा ४२५६)
आर्त्तध्यानी- कामानुरंजित वेदनामय एकाग्र परिणति वाला प्राणी मरकर तिर्यंचगति अथवा वानव्यंतरों में उत्पन्न होता है।
महाव्रत - हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह - इन पापकारी प्रवृत्तियों का पूर्णतः प्रत्याख्यान ।
(रौद्रध्यानी नरकगति में और धर्म्यध्यानी वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। शुक्लध्यानी अनुत्तरविमानों में उत्पन्न होता है। अथवा उसका परिनिर्वाण होता है । - श्रीआको १ ध्यान)
१. पांच महाव्रत
० महाव्रत महागुरु
२. द्रव्यत: - भावतः हिंसा-अहिंसा
* सत्य महाव्रत की सूक्ष्मता
३. अचौर्य महाव्रत की सूक्ष्मता
* साधर्मिक आदि की अनुज्ञा
४. व्रतविभाग : ब्रह्मचर्य स्वतंत्र व्रत
* व्रत : ऋजुप्राज्ञ आदि
*
मैथुनधर्म का अपवाद नहीं
* परिग्रह : कल्पिका प्रतिसेवना
५. मूलगुण : पांच महाव्रत
० उत्तरगुण : समिति आदि
६. रात्रिभोजनविरमण व्रत : छट्टा व्रत
• रात्रि में अशन आदि का अग्रहण, शय्याग्रहण
रात्रिभोजन से मूलगुण- विराधना
*
मूल - उत्तर- गुणभंग से चारित्रभंग
०
७. मूलगुण- उत्तरगुण कब तक ?
८. स्वप्न में व्रतभंग : व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त
९. महाव्रतरक्षा हेतु भावना
० पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं
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द्र समिति
द्र अवग्रह
द्र कल्पस्थिति द्र ब्रह्मचर्य द्र प्रतिसेवना
४६१
द्र चारित्र
१. पांच महाव्रत
पढमं भंते! महव्वयं-पच्चक्खामि सव्वं पाणाड़वायं - से सुहुमं वा बायरं वा, तसं वा थावरं वा - णेव सयं पाणाइवायं करेज्जा, णेवण्णेहिं पाणाइवायं कारवेज्जा, ठेवण्णं पाणाइवायं करंतं समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं - मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥
महाव्रत
......पढमे भंते! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ .....दोच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं ॥ .......तच्चे भंते! महव्वए अदिण्णादाणाओ वेरमणं ॥ ......चउत्थे भंते! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं ॥ ......पंचमे भंते! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं ॥ (आचूला १५/४३, ४९, ५६, ६३, ७०, ७७)
भंते! पहले महाव्रत में मैं सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं - सूक्ष्म या स्थूल, त्रस या स्थावर जो भी प्राणी हैं, उनके प्राणों का अतिपात मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और अतिपात करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए, तीन करण तीन योग से-मन से, वचन से, काया से ।
भंते! मैं अतीत में कृत प्राणातिपात से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और सपाप आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं।
भंते! प्रथम महाव्रत में प्राणातिपात की विरति होती है। दूसरे महाव्रत में मृषावाद की विरति होती है। तीसरे महाव्रत में अदत्तादान की विरति होती है। चतुर्थ महाव्रत में मैथुन की विरति होती है। पांचवें महाव्रत में परिग्रह की विरति होती है।
* पांच महाव्रतों का विवरण
द्र श्रीआको १ महाव्रत
• महाव्रत महागुरु
दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपदा पवेदिता । महागुरू स्पियरा उदीरिया, तमं व तेजो तिदिसं पगासया ॥
'दिशोदिश' मिति सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिक्षु 'क्षेमपदानि' रक्षणस्थानानि... ' महागुरूणि' कापुरुषैर्दुर्वहत्वात् ।
(आचूला १६ / ६ वृ)
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