________________
मंत्र - विद्या
ऊसोवणिविज्जाए य ओसोवेडं गेण्हंति । जेणंजणविज्जादिणा अहिस्सो भवति तं अंतद्धाणं भण्णति । (निभा ३४७ चू)
विद्या के अनेक प्रकार हैं। यथा
० अभियोग - वशीकरण - विद्या, चूर्ण, मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा दूसरे व्यक्ति को अपने वश में करना ।
o
तालोद्घाटिनी - ताले खोलकर इच्छित वस्तु ग्रहण करना । ० अवस्वापिनी - दूसरों को निद्रा में सुलाकर वस्तु ग्रहण करना । ० अन्तर्धान- अंजनविद्या आदि के द्वारा अदृश्य हो जाना। • अंतर्धानपिंड : क्षुल्लक-चाणक्य दृष्टांत
जंघाहीणे ओमे, कुसुमपुरे सिस्स जोगरहकरणं । खुड्डदुगंऽजणसुणणं, गमणं देसंत ओसरणं ॥ भिक्खे परिहायंते, थेराणं ओमे तेसि देंताणं । सहभोज्ज चंदगुत्ते, ओमोयरियाए दोब्बल्लं ॥ चाणक्कपुच्छ इट्टालचुण्ण दारं पिहेउ धूमो य । दिस्सा कुच्छ पसंसा थेरसमीवे उवालंभो ॥
पाडलिपुत्ते गरे चंदगुत्तो राया, चाणक्को मंती, सुट्ठिया आयरिया। सीसस्स अंतद्धाणजोगं रहे एकांते कहेति । सो य ...........सो अंतद्धाणजोगो मेलिओ, एगेणं अक्खी अंजिता बितितो पण पस्सति । दिट्ठा पयपद्धती चुण्णे । चाणक्केणं णायं - पादचारिणो एते अंजणसिद्धा । ताहे दारं ठवेडं धूमो कतो, अंसुणा गलंतेण गलितं दिवं खुड्डगदुगं ।
चंदगुत्तो पिच्छति - अहमेतेहिं विट्टालितो । ततो चाणक्केण भणियं - एते रिसओ कुमारसमणा, पवित्तं ते एतेहिं सह भोयणं । तो अप्पसागारियं चाणक्केण णीणिता । थेराण समीवं चाणक्को गतो - कीस खुड्डे ण सारवेह ? ततो थेरेहिं चाणक्को उवालद्धो- तुमं परमो सावगो, एरिसे ओमकाले साधुवावारण वहसित्ति । तेण भणियं - संता पडिचोदणा, मिच्छा मे दुक्कडं ति । '''' ( निभा ४४६३ - ४४६५ चू) पाटलिपुत्र नगर । चन्द्रगुप्त राजा । चाणक्य मंत्री । सुस्थित आचार्य विहार करने में समर्थ नहीं थे। दुर्भिक्ष का समय था । उन्होंने कुछ साधुओं के साथ एक शिष्य को सुभिक्ष- क्षेत्र में भेजना चाहा और उसे एकांत में अन्तर्धान विद्या सिखाई। दो क्षुल्लकों ने उस विद्या - अंजनयोग की पूरी पद्धति को सुन लिया।
Jain Education International
आगम विषय कोश - २
क्षुल्लकों ने एक बार तो वहां से प्रस्थान कर दिया किन्तु आचार्य के प्रति स्नेह के कारण वे कुछ दूर जाकर लौट आये।
आचार्य भिक्षा में प्राप्त आहार का अधिक भाग क्षुल्लकों को देते, स्वयं ऊनोदरी करते। शिष्यों ने अदृश्य विद्या का प्रयोग किया - आंखों में अंजन आंज लिया, जिससे वे किसी दूसरे को दीख न सकें। वे चन्द्रगुप्त के साथ भोजन कर आते ।
चन्द्रगुप्त राजा अवमोदरिका के कारण दुर्बल हो गया । चाणक्य ने पूछा तो राजा ने कहा- मेरे भोजन को कोई अंतर्हित रहकर खा रहा है। मैं उसे जान नहीं पा रहा हूं ।
चाणक्य ने जानने का उपाय किया। भोजनकक्ष को चारों ओर से बंद कर दिया, केवल एक द्वार खुला रखा। दरवाजे पर ईंटों का बारीक चूर्ण बिखेर दिया। राजा कक्ष में अकेला था। क्षुल्लक आये, कक्ष में प्रविष्ट हुए। चूर्ण पर पदचिह्न अंकित हो गए । चाणक्य ने जान लिया कि आगंतुक अंजनसिद्ध पादचारी हैं। उसने द्वार बंद कर धुआं किया। क्षुल्लकों की आंखों से आंसुओं के साथ अंजन भी बह गया और अब दोनों अदृश्य से दृश्य हो गए। राजा ने कहा - इन्होंने मुझे अपवित्र कर दिया। चाणक्य ने कहा- ये ऋषिकुमार श्रमण हैं, आप इनके कारण पवित्र हो गए हैं।
चाणक्य उन्हें आचार्य के पास ले गया और कहा- गुरुदेव ! आपने इनकी सारणा वारणा क्यों नहीं की ? आचार्य ने उपालंभ देते हुए चाणक्य से कहा- तुम परम श्रावक हो, तुमने इस दुर्भिक्ष काल में भी साधुओं की सुखपृच्छा क्यों नहीं की ? चाणक्य ने अपनी त्रुटि स्वीकार करते हुए 'मिच्छा मि दुक्कडं' कहा और तत्पश्चात् साधुओं की तत्परता से सारसंभाल करने लगा। ८. स्तम्भनी विद्या
४५४
उदग - ग्गि- तेण - सावयभएसु
थंभणिविज्जं मंतेऊण थंभेज्ज ।
थंभणि'''''।''''''
(निभा ४९२ चू)
स्तम्भनीविद्या का ज्ञाता व्यक्ति सम्मुख आने वाले जलप्रवाह, दावानल, चोर, श्वापद (सिंह आदि) और मनुष्य अपहर्त्ता - इन्हें स्तम्भनीविद्या से अभिमंत्रित कर स्तम्भित कर देता है।
९. मानसी विद्या
माणसिविज्जा णाम मणसा चिंतिऊण जं जावं करेति तं लभति । (निभा ४०९ की चू)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org