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मंत्र - विद्या
कुब्ज, वामन, रक्तपट, चरक, तापस, रोगी, अवयवहीन, आतुर, वैद्य, कषायवस्त्रधारी, धूलिधूसरदेह - ये व्यक्ति प्रस्थान के समय दिखाई दें तो यात्राकार्य सिद्ध नहीं होता ।
• प्रशस्त शकुन - प्रस्थान के समय नन्दी आदि बारह प्रकार के वाद्यों की 'युगपद् ध्वनि, पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द - श्रवण, भृंगार, छत्र, चमर, वाहन, यान, इन्द्रियदमी संयत श्रमण, पुष्प, मोदक, दधि, मत्स्य, घंटा, पताका आदि का दर्शनश्रवण होने पर कार्य की सिद्धि होती है।
(प्रस्थान - वेला में जम्बू, चास, मयूर, भारद्वाज और नकुल का दर्शन शुभ शकुन है । - श्रीआको १ शकुन)
मंत्र - विद्या - विशिष्ट प्रकार का वर्णविन्यास | मंत्र विशेष अनुष्ठान से प्राप्त होने वाली शक्ति ।
१. मंत्र और विद्या
२. अभिचारुक मंत्र
३. मंत्र - चिकित्सा : पादलिप्त आचार्य
४. अवनामनी - उन्नामनी विद्या
५. आभोगिनी, प्रश्न आदि विद्याएं
६. प्रश्नप्रश्न : घण्टिकयक्ष
* आभियोगी भावना : भूतिकर्म, प्रश्न आदि ७. अभियोग, तालोद्घाटिनी अंतर्धान विद्या
• अंतर्धानपिण्ड : क्षुल्लक-चाणक्य दृष्टांत ८. स्तम्भनी विद्या
९. मानसी विद्या
१०. विद्याचक्रवर्ती
११. दूती आदि विद्याएं: सर्पदंशचिकित्सा
० साधु-साध्वी चिकित्सा : विद्याप्रयोग विधि
१२. गर्दभी विद्या : गर्दभिल्ल नृप
१३. मातंग विद्या : गौरी-गांधारी
१४. योगपिण्ड : तापस और आर्य समित
१५. योनिप्राभृत ग्रंथ : अश्व उत्पादन
१६. विद्यासिद्धि का काल उपचार आदि
द्र भावना
१. मंत्र और विद्या
विद्या स्त्रीदेवताधिष्ठिता पूर्वसेवादिप्रक्रियासाध्या वा मन्त्राः पुरुषदेवताधिष्ठिताः पठितसिद्धा वा ।
(बृभा १२३५ की वृ)
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आगम विषय कोश - २
साधना विद्या असाधनो मन्त्रः । यस्याधिष्ठात्री देवता सा विद्या, यस्य पुरुषः स मन्त्रः । (व्यभा ८७९ की वृ) जो स्त्रीदेवताअधिष्ठत है और जो पूर्वसेवा आदि प्रक्रिया से साध्य है-साधने से सिद्ध होती है, वह विद्या है।
जिसका अधिष्ठाता पुरुषदेवता होता है और जो साधे बिना पठनमात्र से सिद्ध होता है, वह मंत्र है। (जो ह्रीं आदि वर्णविन्यासात्मक है, वह मंत्र है । - श्रीआको १ मंत्र - विद्या ) २. अभिचारुक मंत्र
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.....करणं वा पडिमाए, तत्थ तु भेदो पसमणं च ॥ अशिव-पुररोधादौ तत्प्रशमनार्थं 'प्रतिमां' पुत्तलकं करोति, तत अभिचारुकमन्त्रं परिजपन् प्रतिमायां भेदं करोति । (बृभा ५१०६ वृ) अशिव ( व्यंतरकृत उपद्रव), नगररोध आदि उपद्रवों को शांत करने के लिए प्रतिमा - पुतले का निर्माण किया जाता है, फिर अभिचारुक मंत्र का उच्चारण करते हुए प्रतिमा के मध्य भाग में भेद किया जाता है, तब उस उपद्रव का शमन हो जाता है। ३. मंत्रचिकित्सा : पादलिप्त आचार्य
जह जह पएसिणि जाणुयम्मि पालित्ततो भमाडेति । तह तह सीसे वियणं, पणासति मुरुंडरायस्स ॥ ( निभा ४४६० )
मुरुण्ड राजा ने पादलिप्त आचार्य को निवेदन किया- मेरे सिर-दर्द को दूर करो । आचार्य ने एकांत में मंत्र का ध्यान करते हु जैसे जैसे अपने जानु पर प्रदेशिनी अंगुलि को घुमाया, वैसेवैसे राजा की शिरोवेदना समाप्त हो गई।
४. अवनामनी और उन्नामनी विद्या
हरिएसो" । तस्स य दो विज्जातो अस्थि- ओणामणी उणामणी य । ओणामणीए ओणामित्ता गहियाणि पज्जत्तगाणि । उण्णामणी उण्णामिआ साहा । ( निभा १३ की चू)
हरिकेश चण्डाल के पास दो विद्याएं थीं
१. अवनामनी - इस विद्या से उसने उद्यान में आम्रवृक्ष की शाखाओं को झुकाकर पर्याप्त आम्रफल ग्रहण किये।
२. उन्नामनी - इस विद्या से शाखाओं को पुनः ऊंचा कर दिया।
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