________________
४५० मंगल
आगम विषय कोश-२ उसमें खदिर के जलते अंगारे डाल दिये। मुनि ने विपुल वेदना को प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार अनेक प्रकार के कष्टों को सहन समभाव से सहा, मन से भी द्वेष नहीं किया। वे प्रशस्त भावधारा, करते हैं, अतः उनके वेदना महान् होती है। प्रशस्त अध्यवसाय प्रशस्त अध्यवसायों से कर्मों को क्षीण कर केवली हो गए, तत्पश्चात् और वेदना में समभाव रखने के कारण उनके महानिर्जरा होती है। मुक्त हो गए। -अंत ३/८/८८-९२
अतः वे महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं।-भ६/१६)
प्रतिमा-विवरण-यंत्र
नाम
साधनास्थल
आसन-ध्यान
»
3
एकमासिकी भिक्षुप्रतिमा द्वैमासिकी भिक्षुप्रतिमा त्रैमासिकी भिक्षुप्रतिमा चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा षाण्मासिकी भिक्षुप्रतिमा सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा प्रथम सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा द्वितीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा तृतीय सप्तअहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा
आहारपरिमाण, तप एक-एक दत्ति दो-दो दत्तियां तीन-तीन दत्तियां चार-चार दत्तियां पांच-पांच दत्तियां छह-छह दत्तियां सात-सात दत्तियां चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल चतुर्थभक्त, पारणक में आचाम्ल षष्ठ भक्त (बेला) अष्टम भक्त (तेला)
आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल आरामगृह, शून्यगृह, वृक्षमूल गांव आदि के बाहर उत्तान, पार्श्वशयन, निषद्या गांव आदि के बाहर दंडायत, लगंडशयन, उकडू गांव आदि के बाहर गोदोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर गोदोहिका, वीरासन, आम्रकुब्ज गांव आदि के बाहर
कायोत्सर्ग, अनिमेषप्रेक्षा
| १०.
मंगल-कल्याणकारी । निर्विघ्नता हेतु की जाने वाली क्रिया। विषय में उसका अभीक्ष्ण उपयोग रहता है, यथार्थ ज्ञान उपलब्ध | १. मंगल का प्रयोजन : नप आदि दृष्टांत
होता है। इससे वह विपुल निर्जरा का भागी बनता है और २. स्थापना मंगल और द्रव्य मंगल
ज्ञानावरण की निर्जरा के कारण उसका शास्त्रीय ज्ञान स्फुट० अष्ट मंगल
स्फुटतर होता चला जाता है। उससे शास्त्र, प्रवचन तथा गुरु के ३. द्रव्य मंगल और भाव मंगल में अंतर
प्रति सहज भक्ति समुल्लसित होती है। उससे प्रभावना होती ४. प्रस्थान वेला में शकुन-अपशकुन
है-शिष्य के भक्तिभाव को देखकर दूसरों में भी श्रद्धा-आदर १. मंगल का प्रयोजन : नृप आदि दृष्टांत
के भाव उत्पन्न होते हैं। विग्धोवसमो सद्धा, आयर उवयोग निज्जराऽधिगमो। ० नृप दृष्टांत-एक व्यक्ति किसी प्रयोजनवश राजा का साक्षात्कार भत्ती पभावणा वि य. निवनिहिविज्जाइ आहरणा॥ करने हेतु पुष्प, अक्षत आदि मांगलिक द्रव्यों को लेकर उपस्थित
(बुभा २०) होता है। उन द्रव्यों को राजा के चरणों में अर्पित करता है। राजा मंगल से विघ्नों का उपशम होता है। विघ्नशमन होने पर प्रसन्न होकर उसके प्रयोजन को सिद्ध कर देता है। आचार्य अनुयोग (शास्त्र की व्याख्या) प्रारंभ करते हैं। इससे निधि और विद्या-कोई व्यक्ति निधि का उत्खनन करना चाहता शिष्य की शास्त्रग्रहण में श्रद्धा पैदा होती है तथा उसके अवधारण है या किसी विद्या को सिद्ध करना चाहता है, उसे द्रव्य, क्षेत्र, में आदर के भाव उत्पन्न होते हैं। आदर के कारण शास्त्र के काल और भाव के अनुसार उपचार करना होता है। जैसे द्रव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org