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आगम विषय कोश-२
४५१
मंगल
से-पुष्प आदि, क्षेत्र से श्मशान आदि, काल से-कृष्णपक्ष की 'चोरस्स करिसगस्स य, रित्तं कुडयं जणो पसंसेइ। चतुर्दशी आदि तथा भाव से- अनुलोम-प्रतिलोम उपसर्गों को गेहपवेसे मन्नइ, पुन्नो कुंभो पसत्थो उ॥' सहना। इतना करने पर ही वह निधि, विद्या और मंत्र को सिद्ध कर
___..‘नाप्यात्यन्तिकम्, यथा कोऽपि शोभनैर्द्रव्यमङ्गलैसकता है।
विनिर्गतः, तेन चाग्रे किञ्चिदशोभनं दृष्टम्, येन तानि * मंगल के निक्षेप, उत्कृष्ट मंगल द्र श्रीआको १ मंगल सर्वाण्यपि प्राक्तनानि प्रतिहतानि, तत एवमनात्यन्तिकमिति।" २. स्थापना मंगल और द्रव्य मंगल
न तद् भावमङ्गलं कस्यचिद्भवति कस्यचिन्न भवति, किन्तु ....... असब्भावे, मंगलठवणागतो अक्खो॥ सर्वस्याविशेषेण भवतीत्यैकान्तिकम्, न च केनाप्यन्येन प्रतिजे चित्तभित्तिविहिया, उ घडादी ते य हुंति सब्भावे। हन्यत इत्यात्यन्तिकम्॥
(बृभा १० वृ) तत्थ पुण आवकहिया, हवंति जे देवलोगेसु॥
द्रव्य मंगल ऐकान्तिक मंगल नहीं होता। जैसे-भरा हुआ उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होंति कुंभाई।
घट एकान्तरूप से सबके लिए मंगल नहीं होता। शकुनविद् चोर तं दव्वमंगलं खलु, जह लोए अट्ठ मंगलगा॥ और किसान के लिए रिक्त घट को मंगल तथा गहप्रवेश के समय
(बृभा ७-९) भरे हुए घट को मंगल मानते हैं। अतः यह अनैकांतिक है। द्रव्य चित्रभित्ति पर विहित घट आदि सद्भाव स्थापना मंगल हैं। मंगल आत्यन्तिक भी नहीं होता। कोई व्यक्ति शुभ मंगल द्रव्यों सद्भूत आकार का अभाव होने से अक्ष, वराटक आदि की मंगल का शकुन लेकर बाहर निकलता है। उसको कुछ दूरी पर अशुभ रूप में स्थापना असद्भाव स्थापना मंगल है।
शकुन का योग होता है। उससे पहले के सारे शुभ शकुन प्रतिहत देवलोकों में चित्रभित्ति पर विहित घट आदि यावत्कथिक हो जाते हैं। यह अनात्यन्तिक है। (शाश्वत) हैं और मनुष्यलोक में वे इत्वरिक (अशाश्वत) हैं। भाव मंगल एकांत रूप से मंगल है। वह किसी के होता
___ मूल गुण-मिट्टी से, उत्तरगुण-चक्र, दंड, सूत्र, उदक है, किसी के नहीं होता, ऐसा नहीं है। वह सबके समान रूप आदि तथा पुरुष के प्रयत्न से निष्पन्न, लक्षणसम्पन्न-निश्छिद्र, से होता है इसलिए ऐकान्तिक है और किसी के द्वारा प्रतिहत अखंड, जलसंभृत और पद्म-उत्पलों से प्रतिच्छन्न कुंभ आदि नहीं होता, इसलिए आत्यन्तिक भी है। नन्दी (पांच ज्ञान) द्रव्य मंगल हैं। जैसे-लोक में स्वस्तिक आदि अष्ट मंगल हैं। भावमंगल है। ० अष्ट मंगल
४. प्रस्थान वेला में शकुन-अपशकुन ..."अट्ठ मंगलया"""सोवत्थिय-सिरिवच्छ-णंदियावत्त- मइल कुचेले अब्भंगियल्लए साण खुज्ज वडभे य।
एए तु अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ जिंतस्स ।। वद्धमाणग-भहासण-कलस-मच्छ-दप्पणया"
रत्तपड चरग तावस, रोगिय विगला य आउरा वेज्जा। (दशा १०/१४)
कासायवत्थ उद्धूलिया य जत्तं न साहंति॥ आठ मंगल हैं--स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, वर्धमानक,
नंदीतूरं पुण्णस्स दंसणं संख-पडहसद्दो य। भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण।
भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई॥ * स्वस्तिक आदि मंगल क्यों? द्र श्रीआको १ मंगल
समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । ३. द्रव्य मंगल और भाव मंगल में अंतर
मीणं घंटं पड़ागं च, सिद्धमत्थं वियागरे॥ णेगंतियं अणच्चंतियं च दव्वे उ मंगलं होइ।
(बृभा १५४७-१५५०) तव्विवरीयं भावे, तं पि य नंदी भगवती उ॥ ० अपशकुन-मलिन, जीर्णवस्त्रधारी, तैल आदि से चुपड़े हुए
"न पूर्णकलश एकान्तेन सर्वेषां मङ्गलम्। शरीर वाला व्यक्ति, बाईं ओर से दायीं ओर जाता हुआ कुत्ता,
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