________________
आगम विषय कोश-२
४४९
भिक्षुप्रतिमा
१. द्रव्य व्युत्सर्ग-प्रोषितधवा कुलवधू स्नान नहीं करती, भूमि ठाणा अहियाए असुभाए""तं जहा-उम्मायं वा लभेज्जा, पर सोती है, अनिकामभाव से पति की शय्या की रक्षा करती है, दीहकालियं वा रोयायंकं पाउणेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा विभूषा नहीं करती, यह उसका द्रव्य व्युत्सर्ग है।
धम्माओ भंसेज्जा॥एगराइयण्णं भिक्खुपडिमंसम्म अणुपाले२. भाव व्युत्सर्ग-मुनि वात, पित्त, कफ-इस त्रिदोष से उत्पन्न माणस्स अणगारस्स इमे तओठाणा हियाए सुभाएतं जहारोग या आतंक से स्पृष्ट होने पर भी उसका प्रतिकार नहीं करता, ओहिनाणे वा से समुप्पज्जेज्जा, मणपज्जवनाणे वा से शरीर का परिकर्म नहीं करता, यह उसका भाव व्युत्सर्ग है। समुप्पज्जेज्जा, केवलनाणे वा से असमुप्पन्नपुव्वे समुप्पज्जेज्जा।
जो बंधन, रोधन, हनन और मारण की स्थिति उत्पन्न होने एवं खलु एसा एगरातिया भिक्खुपडिमा अहासुत्तं अहाकप्पं पर भी उसका निवारण या प्रतिकार नहीं करता, वह त्यक्तदेह है, अहामग्गं अहातच्चं सम्मं काएण फासिया पालिया शरीर की प्रतिबद्धता से मुक्त है। (जो शारीरिक चेष्टा और ममत्व अणुपालिया यावि भवति।
(दशा ७/३४, ३५) का विसर्जन कर शरीर के परिकर्म का त्याग करता है, वह व्युत्सृष्ट
एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की सम्यक् अनुपालना नहीं करने त्यक्तदेह है।- श्रीआको १ कायोत्सर्ग)
वाले भिक्षु के तीन स्थान अहित और अशुभ के हेतु होते हैं० एकरात्रिकी प्रतिमा : अनिमेष प्रेक्षा
१. या तो वह उन्माद को प्राप्त हो जाता है। ....एगपोग्गलनिरुद्धदिट्ठिस्स अणिमिसनयणस्स"॥ २. या दीर्घकालिक रोग और आतंक से ग्रसित हो जाता है।
..... रूविदव्वे कम्हिवि अचेयणे निवेसिया दिट्ठी..... ३. या केवलीप्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। उम्मेसादीणिविण करेति, सुहुमुस्सासंच। (दशा ७/३३ चू) एकरात्रिकीभिक्षुप्रतिमा की सम्यक् अनुपालना करने वाले
एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की आराधना करने वाला मुनि एक भिक्षु के लिए तीन स्थान हित और शुभ के हेतु होते हैंपुद्गल-किसी अचेतन रूपी द्रव्य पर अपनी दृष्टि को निविष्ट १. या तो उसे अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है। करता है, नयनों को अनिमेष बनाता है-श्वास की सूक्ष्म क्रिया के २. या मनःपर्यवज्ञान प्राप्त हो जाता है। अतिरिक्त उन्मेष-निमेष आदि सभी क्रियाओं का विसर्जन कर ३. या पूर्वअसमुत्पन्न केवलज्ञान समुत्पन्न हो जाता है। आत्मलीन हो जाता है।
इस प्रकार यह एकरात्रिकी भिक्षप्रतिमा यथासत्र, यथाकल्प. (भगवान् महावीर प्रहर-प्रहर तक तिर्यक् भित्ति पर आंखों यथामार्ग और यथातत्त्व (विधिसूत्र, मर्यादा-व्यवस्था, पद्धति और को स्थिर कर ध्यान करते थे।-आ ९/१/५
प्रतिमा के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप), सम्यक् प्रकार से काया नासाग्र या भृकुटि पर दृष्टि को अनिमेष करना ध्यान का से स्पृष्ट, पालित और आज्ञा से अनुपालित होती है। महत्त्वपूर्ण प्रयोग है। आचार्य हेमचन्द्र ने अयोगव्यवच्छेदिका (गाथा (भगवान् महावीर ने छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह वर्षीय २०) में अनिमेष दृष्टि को जिनेन्द्र-मुद्रा का एक लक्षण माना है- दीक्षापर्याय में सुसुमारपुर के अशोकषण्ड उद्यान में अशोकवृक्ष के
वपुश्च पर्यंकशयं श्लथं च, दृशौ च नासानियते स्थिरे च। नीचे पृथ्वीशिलापट्ट पर तीन दिन का उपवास ग्रहण कर एकरात्रिकी न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैः, जिनेन्द्र ! मुद्रापि तवान्यदास्ताम्॥ महाप्रतिमा स्वीकार की थी।-भ ३/१०५
अनिमेषप्रेक्षा से निर्विकल्प समाधि सिद्ध होती है। घेरण्ड- मुनि गजसुकुमाल ने दीक्षा के प्रथम दिन अर्हत् अरिष्टनेमि संहिता (१/५३) में इसे त्राटक कहा गया है
से अनुज्ञा प्राप्त कर महाकाल श्मशान में एकरात्रिकी महाप्रतिमा निमेषोन्मेषकं त्यक्त्वा, सूक्ष्मलक्ष्यं निरीक्षयेत्। स्वीकार की थी। वे अनिमिषनयन-शुष्क पुद्गल पर दृष्टि निरुद्ध
पतन्ति यावदश्रूणि, त्राटकं प्रोच्यते बुधैः ॥) कर खड़े थे, उस संध्या काल में सोमिल ब्राह्मण वहां आया, उसने ४. एकरात्रिकी प्रतिमा की निष्पत्ति
प्रतिशोध की भावना से उपसर्ग किया-पहले आक्रोशवचन कहे. एगराइयण्णं भिक्खुपडिमं अणणुपालेमाणस्स इमे तओ फिर उसने गजसुकुमाल के मस्तक पर गीली मिट्टी की पाल बांध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org