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भिक्षुप्रतिमा
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आगम विषय कोश-२
गारस्स निच्चं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उववजंति" इसी प्रकार दूसरी सात अहोरात्रिकी (नौवीं)प्रतिमा की सम्मंसहति"॥कप्पति से चउत्थेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया आराधना की जाती है, केवल आसन में अंतर है-वह दण्डायतिक, गामस्स वा जाव रायहाणीए वा उत्ताणगस्स वा पासेल्लगस्स लगंडशयन अथवा उत्कुटुक आसन में स्थित हो कायोत्सर्ग वा नेसज्जियस्स वा ठाणं ठाइत्तए।....
करता है। एवं दोच्चा सत्तरातिंदियावि भवति, नवरं-दंडायति
इसी प्रकार तीसरी सात अहोरात्रिकी (दसवीं) प्रतिमा है. यस्स वालगंडसाइस्स वा उक्कडयस्स वा ठाणं ठाइत्तए... केवल आसन में अंतर है-इसमें वह गोदोहिका, वीरासन या
एवं तच्चा सत्तरातिंदियावि, नवरं-गोदोहियाए वा आम्रकुब्ज आसन में स्थित हो कायोत्सर्ग करता है। वीरासणियस्स वा अंबखुज्जस्स वा ठाणं ठाइत्तए।"
इसी प्रकार ग्यारहवीं अहोरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा की आराधना एवं अहोरातियावि, नवरं-छद्रेणं भत्तेणं अपाण- की जाती है। अंतर केवल इतना है कि इसमें मुनि दो दिन का एणं..."ईसिं दोवि पाए साहट्ट, वग्घारियपाणिस्स ठाणं निर्जल उपवास कर गांव के बाहर दोनों पैरों को सटा, दोनों हाथों ठाइत्तए।" .
को प्रलंबित कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित होता है। एगराइयण्णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स"" ।। कप्पड़ से बारहवीं एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार गांव के अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं बहिया गामस्स"दोवि पाए साहट्ट बाहर तीन दिन का निर्जल उपवास ग्रहण कर तीसरे दिन पूरी रात वग्धारियपाणिस्स एगपोग्गलनिरुद्धदिद्विस्स अणिमिस- कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित रहता है-दोनों पैरों को सटा, दोनों नयणस्स ईसिं पब्भारगतेणं कारणं अहापणिहितेहिं गत्तेहिं भुजाओं को प्रलंबित कर, एक पुद्गल पर दृष्टि टिका, नेत्रों को सव्विदिएहिं गुत्तेहिं ठाणं ठाइत्तए। तत्थ दिव्व-माणुस्स- अनिमेष बना, शरीर को आगे की ओर कुछ झुका, अवयवों को तिरिच्छजोणिया उवसग्गा समुप्पज्जेज्जा, ते णं पयालेन्ज वा अपने-अपने स्थान पर सम्यक् नियोजित कर, सब इन्द्रियों को पवाडेज वा, नो से कप्पति पयलित्तए वा पवडित्तए वा। संवृत बना स्थानस्थित होता है। देव, मनुष्य या तिर्यंच संबंधी तत्थ से उच्चारपासवणं उव्वाहेज्जा नो से कप्पति उच्चार- उपसर्ग उत्पन्न हों, वे उसे ध्यान से विचलित या पतित करें तो वह पासवणं ओगिण्हित्तए वा, कप्पति से पव्वपडिलेहियंसि उनसे विचलित या पतित नहीं होता। उस समय मल-मूत्र की थंडिलंसि परिद्ववित्तए, अहाविहिमेव ठाणं ठाइत्तए॥ बाधा उत्पन्न हो तो वह उसे रोकता नहीं है, पूर्व प्रतिलेखित
पढमसत्तरातिंदियादिसु कालकृतो उपधानकृतो य स्थण्डिल में उच्चार-प्रस्रवण का परिष्ठापन कर पुनः यथाविधि विसेसो, ण दत्तीए परिमाणं, चउत्थपारणए आयंबिलं, अपाणगं उस स्थान में आकर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित हो जाता है। तवोकम्मं सव्वासिं।
(दशा ७/२७-३३ चू) ० व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह आठवीं से बारहवीं भिक्षप्रतिमा में पूर्व प्रतिमाओं से जो भेद असिणाण भूमिसयणा, अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा। है, वह कालकृत और उपधानकृत भेद है। इनमें दत्तिपरिमाण नहीं
रक्खति पतिस्स सेज्जं, अणिकामा दव्ववोसट्ठो॥ होता।
वातियपित्तियसिंभियरोगातंकेहि तत्थ पुट्ठो वि। प्रथम सात अहोरात्रिकी (आठवीं)भिक्षुप्रतिमाप्रतिपन्न अनगार
न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ कायिक ममत्व का विसर्जन और देहपरिकर्म का त्यागकर उत्पन्न
बंधेज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अहव मारेज्ज। उपसर्गों को सम्यक प्रकार से सहन करता है, सात दिन तक
_वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥ एकांतर निर्जल उपवास और पारणक में आचाम्ल तप करता है।
(व्यभा ३८३८, ३८३९, ३८४१) वह गांव के बाहर उत्तानशयन अथवा पार्श्वशयन अथवा निषद्या
वोसटुं दुविधं-दव्ववोसटुं भाववोसटुं च। दव्ववोसटे आसन की मुद्रा में कायोत्सर्ग करता है। (आसन विवरण द्र कुलवधुदिटुंतो भाववोसटे साधू"। (दशा ७/४ की चू) कायक्लेश)
व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं
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