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तीर्थंकर
मुंड होकर अगारता से अनगारता में प्रव्रजित हुए । महावीर तेरह मास तक चीवरधारी रहे, उसके पश्चात् अचेल और पाणिपात्र हो गए।
केशलुंचन
.....समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करेइ ॥
तओ णं सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नुव्वायपडिए वयरामएणं थालेणं केसाई पडिच्छइ, पडिच्छित्ता 'अणुजाणेसि भंते ' त्ति कट्टु खीरोयसायरं साहरइ ॥ (आचूला १५/३०, ३१)
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दीक्षा के समय श्रमण भगवान महावीर ने दाहिने हाथ से दाहिनी ओर का एवं बायें हाथ से बायीं ओर का पंचमुष्टि - लुंचन किया।
तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने घुटनों के बल बैठ श्रमण भगवान महावीर की केशराशि को वज्ररत्नमय थाल में ग्रहण किया, ग्रहण कर " भंते! आपकी आज्ञा है "- ऐसा कह उस केशराशि को क्षीरोद सागर में प्रवाहित कर दिया। ० सामायिक चारित्र ग्रहण
...लोयं करेत्ता सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ, करेत्ता, "सव्वं मे अकरणिज्जं पावकम्मं" ति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ । (आचूला १५/३२) महावीर ने केश - लुंचन कर सिद्धों को नमस्कार किया, नमस्कार कर (आज से) मेरे लिए सब पापकर्म अकरणीय " - इस संकल्प के साथ सामायिकचारित्र स्वीकार किया। ० मनः पर्यवज्ञान - उत्पत्ति
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......महावीरस्स सामाइयं खाओवसमियं चरितं पडिवन्नस्स मणपज्जवणाणे णामं णाणे समुप्पन्ने । (आचूला १५/३३) क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र प्रतिपन्न महावीर को मनः पर्यवज्ञान समुत्पन्न हुआ। १३. महावीर का अभिग्रह
.......महावीरे पव्वइते समाणे....अभिग्गहं अभि
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आगम विषय कोश- २
गिण्हइ - ' बारसवासाइं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा उप्पज्जति दिव्वा वा माणुसा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाइले अव्वहिए अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्मं सहिस्सामि ॥ (आचूला १५/३४) महावीर ने प्रव्रजित होकर यह अभिग्रह ग्रहण किया'मैं बारह वर्ष पर्यंत शरीर का व्युत्सर्ग और देह का त्याग करूंगा - शरीर की सार-संभाल नहीं करूंगा। इस अवधि में देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे, उन्हें मैं अनाकुल, अव्यथित और अदीनभाव से मन, वचन और काया - इन तीनों से गुप्त रहकर सम्यक् प्रकार से सहन करूंगा।'
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१४. महावीर की अनुत्तर विहारचर्या
.....समणे भगवं महावीरे वोसट्ठचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं, अणुत्तरेणं विहारेणं, अणुत्तरेणं संजमेणं, अणुत्तरेणं पग्गहेणं, अणुत्तरेणं संवरेणं, अणुत्तरेणं तवेणं, अणुत्तरेणं बंभचेरवासेणं, अणुत्तराए खंतीए, अणुत्तराए मोत्तीए, अणुत्तराए तुट्ठीए, अणुत्तराए समितीए, अणुत्तराए गुत्तीए, अणुत्तरेणं ठाणेणं, अणुत्तरेणं कम्मेणं, अणुत्तरेणं सुचरियफल- णिव्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरड़ ॥ (आचूला १५/३६)
श्रमण भगवान महावीर शरीर का व्युत्सर्ग कर, देहाध्यास से मुक्त 'होकर अनुत्तर आलय, अनुत्तर विहार, अनुत्तर संयम, अनुत्तर प्रग्रह ( निग्रह), अनुत्तर संवर, अनुत्तर तप, अनुत्तर ब्रह्मचर्यवास, अनुत्तरक्षांति, अनुत्तर मुक्ति (निर्लोभता), अनुत्तर संतुष्टि (संतृप्ति), अनुत्तर समिति, अनुत्तर गुप्ति, अनुत्तर स्थान (कायोत्सर्ग), अनुत्तर कर्म और अनुत्तर उपशम सार वाले श्रामण्य तथा मुक्तिमार्ग - ज्ञान-दर्शन- चारित्र से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे ।
(परमावधि ज्ञान की प्राप्ति-साधना का छठा वर्ष । वानमंतरी कटपूतना द्वारा भयंकर उपसर्ग की स्थिति उत्पन्न किये जाने पर भी भगवान् महावीर ध्यान में अविचल रहे । उस समय उन्हें विशिष्ट अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वे सम्पूर्ण लोक को देखने लगे ।-द्र श्रीआको १ तीर्थंकर)
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