________________
भाषा
की इच्छा से बोली जाती है, पूर्वोक्त तीनों भाषाओं से विलक्षण है, वह असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा है। इसे चतुर्थ भाषा भी कहा जाता है। इसके आमंत्रणी, आज्ञापनी आदि दस भेद हैं। * चतुर्विध भाषा के ४२ भेद द्र श्रीआको १ भाषा (० सिद्ध, चतुर्दशगुणस्थानवर्ती जीव, एकेन्द्रिय और सब अपर्याप्तक- ये अभाषक होते हैं। नैरयिक, मनुष्य और देव-ये चारों प्रकार की भाषा बोलते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक – ये न सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषा बोलते हैं, न सत्यामृषा बोलते हैं, एक असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा बोलते हैं । इतना विशेष है- प्रशिक्षित अथवा उत्तरगुण लब्धिसम्पन्न पंचेन्द्रियतिर्यंच चारों प्रकार की भाषा बोल सकते हैं । - प्रज्ञा ११ / ३८-४६ )
२. भाषा का स्वरूप
''''' चत्तारि भासज्जायाइं, तं जहा - सच्चमेगं पढमं भासज्जायं, बीयं मोसं, तइयं सच्चामोसं, जं णेव सच्च व मोसं णेव सच्चामोसं - असच्चामोसं णाम तं चउत्थं भासज्जातं ॥
सव्वाइं चणं एयाणि अचित्ताणि वण्णमंताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चयोवचइयाइं विपरिणामधम्माई भवतीति अक्खायाई ॥ (आचूला ४/६, ८)
४४२
भाषा के चार प्रकार हैं - १. सत्य भाषा, २. मृषा भाषा, ३. सत्यामृषाभाषा, ४. न सत्य, न मृषा, न सत्यामृषा -असत्यामृषा भाषा। ये सारे भाषाद्रव्य अचेतन हैं, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त हैं, चयोपचयिक तथा विविध परिणमनधर्मा हैं ।
( जीव ग्रहणद्रव्य की अपेक्षा से एक वर्ण वाले भी यावत् पांच वर्ण वाले भी और सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पांच वर्ण वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। दो गंध और पांच रस के संदर्भ में भी यही वक्तव्य है। आठ स्पर्श में से ग्रहण द्रव्य की अपेक्षा से भाषाद्रव्य दो स्पर्श वाले होते हैं यावत् चार स्पर्श वाले भी होते हैं। एक, पांच यावत् आठ स्पर्श वाले नहीं होते । सर्वग्रहण की अपेक्षा से जीव नियमतः चार स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है - शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ।
जीव जिन अणु या बादर भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे
Jain Education International
आगम विषय कोश - २
तह
य ॥
स्पृष्ट और अनन्तरावगाढ होते हैं। उनका ग्रहण सांतर भी होता है, निरंतर भी होता है तथा निसर्जन सांतर होता है, निरंतर नहीं । ग्रहण- निसर्जन का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय वाला अंतर्मुहूर्त है। भाषाद्रव्य भिन्न और अभिन्न दोनों रूपों में निसृष्ट होते हैं । - प्रज्ञा ११ / ५२-७२) ३. भाषाद्रव्यजात ......उप्पत्ती पज्जवंतरे जायगहणे द्रव्यजातं चतुर्विधम्, उत्पत्तिजातं पर्यवजातम् अन्तरजातं ग्रहणजातं, तत्रोत्पत्तिजातं नाम यानि द्रव्याणि भाषावर्गणान्तः पातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निसृष्टानि भाषात्वेनोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातं यद् द्रव्यं भाषात्वेनोत्पन्नमित्यर्थः१ । पर्यवजातं तैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैर्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघातेन २। यानि त्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिश्रितानि भाषा - परिणामं भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यन्ते ३ । यानि पुनर्द्रव्याणि समश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि द्रव्यतः, क्षेत्रतोऽसंख्येप्रदेशावगाढानि, कालत एकद्वित्र्यादि यावदसंख्येयसमयस्थितिकानि, भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति तानि चैवंभूतानि ग्रहणजातमित्युच्यन्ते४ । (आनि ३३६ वृ)
भाषाद्रव्यजात के चार प्रकार हैं
१. उत्पत्तिजात - भाषावर्गणा के अंत:पाती द्रव्य काययोग से गृहीत होकर वचनयोग से निसृष्ट होने पर भाषा के रूप में उत्पन्न होते हैं। भाषा रूप में उत्पन्न द्रव्य उत्पत्तिजात है ।
२. पर्यवजात—उन वाग्निसृष्ट भाषाद्रव्यों के पराघात से भाषा की विश्रेणी में स्थित भाषावर्गणा के द्रव्य भाषा के रूप में उत्पन्न होते हैं, वे पर्यवजात कहलाते हैं।
३. अंतरजात - अन्तराल में समश्रेणि में स्थित भाषावर्गणा के द्रव्य निसृष्ट द्रव्यों से मिश्रित होकर भाषा परिणाम से परिणत होते हैं, वे अंतरजात कहलाते हैं ।
४ ग्रहणजात -- सम श्रेणि अथवा विषमश्रेणि में स्थित भाषा रूप में परिणत द्रव्य श्रोता द्वारा कर्णशष्कुलीविवर से ग्रहण किए जाते हैं। वे द्रव्य की अपेक्षा से अनंतप्रदेशी स्कन्ध, क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येयप्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से एक, दो, तीन यावत्
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org