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भिक्षाचर्या
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आगम विषय कोश-२
बीतने पर ये अभिग्रह पूर्ण हुए। चन्दनबाला के हाथ से उड़द के १९. मौनचरक
२५. अभिक्षालाभिक बाकले ग्रहण किये।-आवचू १ पृ ३१६, ३१७)
२०. दृष्टलाभिक
२६. अन्नग्लायक ३. काल अभिग्रह-भिक्षावेला के आदि, मध्य या अवसान में २१. अदृष्टलाभिक २७. औपनिधिक भिक्षा ग्रहण करूंगा-ऐसी प्रतिज्ञा करना।
२२. पृष्टलाभिक
२८. परिमितपिण्डपातक ० आदि-भिक्षाकाल से पहले ही भिक्षा के लिए जाना। २३. अपृष्टलाभिक २९. शुद्धएषणिक ० मध्य-भिक्षाकाल के समय भिक्षा के लिए जाना।
२४. भिक्षालाभिक ३०. संख्यादत्तिक-औप ३४ ० अवसान-भिक्षा का समय अतिक्रांत होने पर जाना।
वृत्तिसंक्षेप के आठ प्रकार हैं४. भाव अभिग्रह-अमुक अवस्था में भिक्षा लूंगा। जैसे- १. संसृष्ट-शाक, कुल्माष आदि धान्यों से संसृष्ट आहार। उत्क्षिप्तचरक–दायक के द्वारा पाकभाजन से पहले से ही बाहर २. फलिहा-मध्य में ओदन और उसके चारों ओर शाक रखा हो, निकाले हुए भोजन की गवेषणा करने वाले। निक्षिप्तचरक ऐसा आहार। ३. परिखा-मध्य में अन्न और उसके चारों ओर (पाकभाजन में स्थित भोजन लेने वाले), संख्यादत्तिक (परिमित व्यंजन रखा हो, वैसा आहार । ४. पुष्पोपहित-व्यंजनों के मध्य में दत्तियों का भोजन लेने वाले), दृष्टलाभिक (सामने दीखने वाले पुष्पों के समान अन्न की रचना किया हुआ आहार।५. शुद्धोपहितआहार को लेने वाले), पृष्टलाभिक (क्या भिक्षा लोगे? यह पूछे निष्पाव आदि धान्य से अमिश्रित शाक आदि। ६. लेपकृत-हाथ जाने पर ही भिक्षा लेने वाले) इत्यादि । गुण गुणी से किसी अपेक्षा के चिपकने वाला आहार। ७. अलेपकृत-हाथ के न चिपकने से अभिन्न होने से भावयुत अभिग्रह ही भावाभिग्रह है। वाला आहार । ८. पानक-द्राक्षा आदि से शोधित पानक, चाहे वह
गाता हुआ, रोता हुआ, बैठा हुआ, खड़ा हुआ, पीछे सिक्थ-सहित हो या सिक्थ-रहित।-मूला ३/२२० की वृ) हटता हुआ, सम्मुख आता हुआ, पराङ्मुख होता हुआ, आभूषणों ० आठ गोचरभूमियां से अलंकृत अथवा अनलंकृत पुरुष आदि देगा तो भिक्षा लूंगा- अट्ठ उ गोयरभूमी....... ........... इनमें से किसी भी भाव (संकल्प) से युत होना भावाभिग्रह है। १. ऋज्वी २. गत्वाप्रत्यागतिका ३. गोमूत्रिका ४. पतंग
द्रव्य आदि चतुर्विध अभिग्रह तीर्थंकरों द्वारा भी यथायोग वीथिका ५. पेटा ६. अर्द्धपेटा ७. अभ्यन्तर-शम्बूका ८. बहिःआचीर्ण हैं तथा मोह और अहंकार का अपनयन करने में समर्थ हैं। शम्बका च। तत्र यस्यामेकां दिशमभिगृह्योपाश्रयाद् निर्गतः इन अभिग्रहों को धारण करने में समर्थ सहिष्णु गच्छवासियों के प्राञ्जलेनैव पथा समश्रेणिव्यवस्थितगृहपंक्तौ भिक्षां परिभ्रमन् लिए ये महान् कर्मनिर्जरा के हेतु हैं।
तावद् याति यावत् पंक्तौ चरमगृहम्, ततो भिक्षामगृह्णन्ने* भिक्षाचर्या के अंग
द्र श्रीआको १भिक्षाचर्या वापर्याप्तेऽपि प्राञ्जलयैव गत्या प्रतिनिवर्त्तते सा ऋग्वी। यत्र (भिक्षाचर्या के तीस प्रकार हैं
पुनरेकस्यां गृहपंक्तौ परिपाट्या भिक्षमाणः क्षेत्रपर्यन्तं गत्वा १. द्रव्याभिग्रहचरक १०. संह्रियमाणचरक
प्रत्यागच्छन् पुनर्द्वितीयस्यां गृहपंक्तौ भिक्षामटति सा गत्वा२. क्षेत्राभिग्रहचरक ११. उपनीतचरक
प्रत्यागतिका"। यस्यां तु वामगृहाद् दक्षिणगृहे दक्षिणगृहाच्च ३. कालाभिग्रहचरक १२. अपनीतचरक
वामगृहे भिक्षांपर्यटति सा गो:-बलीवर्दस्य मूत्रणं गोमूत्रिका, ४. भावाभिग्रहचरक १३. उपनीतअपनीतचरक
उपचारात तदाकारा गोचरभमिरपि गोमत्रिका। यस्यां त ५. उत्क्षिप्तचरक १४. अपनीतउपनीतचरक त्रिचतुरादीनि गृहाणि विमुच्याग्रतः पर्यट ६. निक्षिप्तनिक्षिप्तचरक १५. संसृष्टचरक
गच्छन्नुत्प्लुत्योत्प्लुत्यानियतया गत्या गच्छति एवं गोचर७. उत्क्षिप्तचरक १६. असंसृष्टचरक
भूमिरपि या पतङ्गोड्डयनाकारा सा पतंगवीथिका....। ८. निक्षिप्तउत्क्षिप्तचरक १७. तज्जातसंसृष्टचरक
यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावत् चतुरस्त्रं विभज्य मध्यवर्तीनि ९. परिवेष्यमाणचरक १८. अज्ञातचरक
च गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामटति सा
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