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आगम विषय कोश - २
पेटा । अर्द्धपेटाऽप्येवमेव, नवरमर्द्धपेटासदृशसंस्थानयोर्दिग्द्वयसम्बद्धयोर्गृहश्रेण्योरत्र पर्यटति । शम्बूक :- शंखः तद्वद् या वीथिः सा शम्बूका । सा द्वेधा - अभ्यन्तरशम्बूका बहिः शम्बूका च । यस्यां क्षेत्रमध्यभागात् शंखवद् वृत्तया परिभ्रमण भंग्या भिक्षां गृह्णन् क्षेत्रबहिर्भागमागच्छति सा अभ्यन्तरशम्बूका। यस्यां तु क्षेत्रबहिर्भागात् तथैव भिक्षामन् मध्यभागमायाति सा बहिः शम्बूका । (बृभा १६४९ वृ)
. गोचर भूमियां (गोचराग्र) आठ हैं
१. ऋज्वी - किसी एक दिशा में उपाश्रय से प्रस्थान कर सीधे पथ से समश्रेणि में व्यवस्थित गृहपंक्ति में भिक्षाटन करता हुआ उस पंक्ति के अंतिम घर तक जाता है, फिर प्रांजल गति से ही लौटता है, लौटते समय अपर्याप्त होने पर भी भिक्षा ग्रहण नहीं करता । २. गत्वाप्रत्यागतिका - सीधी गली की एक पंक्ति में क्रमशः भिक्षा करता हुआ क्षेत्र के पर्यंत भाग तक जाता है, लौटते समय दूसरी पंक्ति से भिक्षा करता है।
३. गोमूत्रिका - गोमूत्रिका के आकार वाली गोचरभूमि में बाएं पार्श्व के घर से दाएं पार्श्व के घर में और दाएं पार्श्व से बाएं पार्श्व के घर में भिक्षाटन करता है।
४. पतंगवीथिका – शलभ अनियत गति से उड़ता है। पतंग के उड्डयन के आकार में तीन, चार आदि घर छोड़-छोड़ कर अक्रम से किसी घर में भिक्षा मिले तो लूं - इस प्रकार के संकल्प से भिक्षाटन करना पतंगवीथिका गोचर भूमि है।
५. पेटा - इसमें साधु क्षेत्र को पेटा की भांति चार कोणों में विभक्त कर मध्यवर्ती घरों को छोड़ कर चारों ही दिशाओं में समश्रेणि में स्थित घरों में भिक्षा करता है।
६. अर्धपेटा - इस अभिग्रह वाला साधु अर्धपेटा सदृश संस्थान से संस्थित दो दिशाओं में स्थित गृहश्रेणि में भिक्षा करता है । ७. आभ्यंतर शम्बूका - इसमें भिक्षु शंख के नाभिभाग से प्रारंभ हो बाहर आने वाले आवर्त की भांति गांव के भीतरी भाग से भिक्षा ग्रहण करते हुए क्षेत्र के बाहरी भाग में आता है। ८. बहिः शम्बूका - इसमें मुनि क्षेत्र के बाहरी भाग से भिक्षाटन करता हुआ भीतरी भाग में आता है। यह गोचरभूमि बाहर से भीतर जाने वाले शंख के आवर्त की भांति है । ( शम्बूकावर्त्त की एक अन्य व्याख्या भी है- दक्षिणावर्त्त शंख की भांति दाईं ओर
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भिक्षुप्रतिमा
आवर्त्त करते हुए 'भिक्षा मिले तो लूं अन्यथा नहीं' इस संकल्प से भिक्षा करना प्रदक्षिणशम्बूकावर्त्ता है। इसी प्रकार वामावर्त्त शंख की भांति बाईं ओर आवर्त्त करते हुए भिक्षाटन करना वामशम्बूकावर्त्ता । - प्रसा ७४९ की वृ
ऋज्वी (आयत) और गत्वाप्रत्यागता को एक मानने पर तथा शम्बूकावर्त्ता के दो भेद नहीं करने पर गोचराग्र के छह भेद होते हैं । - श्रीआको १ भिक्षाचर्या)
भिक्षु–भिक्षाशील, साधु ।
द्र श्रमण
भिक्षुप्रतिमा - विशिष्ट श्रुत आदि से सम्पन्न अनगार द्वारा किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग ।
१. बारह भिक्षुप्रतिमा
* भिक्षुप्रतिमाप्रतिपत्ता: श्रुत-अर्हता, परिकर्म २. प्रथम सात प्रतिमाओं का स्वरूप
३. आठवीं से बारहवीं प्रतिमा : तप-आसन-स्थान ० व्युत्सृष्ट- त्यक्त - देह
०
एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमा : अनिमेष प्रेक्षा
४. एकरात्रिकी प्रतिमा की निष्पत्ति * प्रतिमाप्रतिपन्न और उपधि
द्र प्रतिमा
द्र उपधि
१. बारह भिक्षुप्रतिमा
...... बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहामासिया भिक्खुपडिमा, दोमासिया भिक्खुपडिमा, तेमासिया भिक्खु-पडिमा चउमासिया भिक्खुपडिमा, पंचमासिया भिक्खुपडिमा छम्मासिया भिक्खुपडिमा, सत्तमासिया भिक्खुपडिमा पढमा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा तच्चा सत्तरातिंदिया भिक्खुपडिमा अहोरातिंदिया भिक्खुपडिमा, एगराइया भिक्खुपडिमा ॥ (दशा ७/३)
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भिक्षुप्रतिमा के बारह प्रकार हैं
१. मासिकी भिक्षुप्रतिमा, २. द्विमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ३. त्रिमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ४. चातुर्मासिकी भिक्षुप्रतिमा, ५. पंचमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ६. छहमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ७ सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा, ८. प्रथम सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा, ९. द्वितीय सप्तरात्रंदिवा भिक्षुप्रतिमा, १०. तृतीय सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमा,
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