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आगम विषय कोश-२
३६५
पिण्डैषणा
० उद्देश-भिक्षाचरों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार ।
पुरिसाणं एगस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिम-चरिमाणं। समद्देश-पाखंडियों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार।
ण वि कप्पे ठवणा मेत्तगं तु गहणं तहिं णत्थि॥ ० आदेश-श्रमणों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार ।
एवमुवस्सयपुरिमे, उद्दिष्टुं तं ण पच्छिमा भुंजे। ० समादेश-निग्रंथों के उद्देश्य से निष्पन्न आहार।
मज्झिमतव्वज्जाणं, कप्पे उद्दिट्ठसमपुव्वा॥ ५. आधाकर्मिक आहार-निषेध
पंचयामसमणाण एगो, समणीण बितिओ, एवं "परो आहाकम्मियं असणं वा पाणं वा. उवक्खडेता
चाउज्जामियाण वि दो, एवं चउरो। (निभा २६६७-२६७३ चू)
चार उपाश्रय हैं-१. पंचयाम श्रमण और २. श्रमणीआहट्ट दलएज्जा। तहप्पगारं असणं अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते णो पडिगाहेज्जा॥
प्रथम-चरम तीर्थवर्ती । ३. चतुर्याम श्रमण और ४. श्रमणी-मध्यम
बाईस तीर्थंकर-शासनवर्ती । आधाकर्मकारी व्यक्ति सामान्यत: चार (आचूला १/१२३)
विकल्पों का संकल्प कर आहार आदि तैयार करता हैगृहस्थ आधाकर्मिक अशन-पान तैयार कर, संस्कारित कर १. संघ के उद्देश्य से ३. उपाश्रय के उद्देश्य से लाकर दे, उसे अप्रासुक (अनभिलषणीय) अनेषणीय मानता हुआ २. श्रमण-श्रमणी के उद्देश्य से ४. एक पुरुष के उद्देश्य से मिलने पर भी ग्रहण न करे।
० ओघ औद्देशिक-सर्वसंघ या सर्व श्रमण-श्रमणी के उद्देश्य से (आधाकर्म-भोजी श्रमण निग्रंथ आयुष्य कर्म को छोड़कर कृत वस्तु चतुर्याम और पंचयाम-दोनों ही नहीं ले सकते। शेष सोत कर्मों की शिथिल बंधनबद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धनबद्ध । ० विभाग औद्दशिक-प्रथम (ऋषभकालीन) संघ के उद्देश्य से करता है।... आधाकर्म का अर्थ साधु को मन में रखकर उसके कृत आहार आदि मध्यम (बाईस तीर्थंकरकालीन) संघ के लिए निमित्त किया जाने वाला आहार है। जर्मन विद्वान् डॉ. लायमान
कल्पनीय है। प्रथम और चरम संघ के लिए वह अकल्प्य है। ने आहाकम्म का अर्थ याथाकाम्य किया है। ... याथाकाम्य आहार
मध्यम संघ के लिए निर्मित आहार आदि प्रथम-चरम और मध्यमखाने वाला सभी जीवनिकायों के प्रति निरनकम्प होता है। याथाकाम्य
सबके लिए अग्राह्य है। चरम संघ के उद्देश्य से कृत वस्तु प्रथमआहार का अर्थ है---गृहस्थ अपनी इच्छा के अनुसार मुनि के लिए
चरम के लिए अकल्प्य तथा मध्यम संघ के लिए कल्प्य है। कोई वस्तु बनाना चाहता है और मुनि उसके लिए अपनी स्वीकृति
इसी प्रकार ऋषभस्वामी के तीर्थ के साधु-साध्वियों के दे देता है अथवा मुनि अपने इच्छानुकूल भोजन के लिए गृहस्थ को
लिए कृत वस्तु मध्यम के लिए ग्राह्य और मध्यम के लिए कृत प्रेरित करता है।-भ १/४३६,४३७ भाष्य)
वस्तु दोनों के लिए अग्राह्य है।
प्रथम तीर्थंकर के शासन में एक पुरुष के उद्देश्य से कृत ६. चार उपाश्रय : ग्राह्य-अग्राह्य आधाकर्म
प्रथम और चरम संघ में सबके लिए अग्राह्य है। चरम में एक के संघस्स परिम-पच्छिम-समणाणं चेव होइ समणीणं। लिए कत वस्त प्रथम और चरम में सबके लिए अग्राह्य है। प्रथम चउण्डं उवस्सयाणं, कायव्व परूवणा होति॥ और चरम संघ में काल का प्रलम्ब अंतराल होने के कारण परस्पर संघं समुद्दिसित्ता, पढमो बितिओ य समण-समणीणं। ग्रहण संभव नहीं है, अतः यह विकल्प प्रज्ञापन मात्र है। ततिओ उवस्सए खल, चउत्थओ एगपुरिसं तु॥ मध्यम संघ में इतना विशेष है कि सामान्य रूप से एक के जदि सव्वं उद्दिसिउं, संघं तु करेति दोण्ह वि ण कप्पे। लिए कृत वस्तु किसी एक के ग्रहण करने पर शेष सबके लिए अहवा सव्वे समणा, समणी वा तत्थ वि तहेव॥ ग्राह्य है किन्तु विशेष रूप से किसी एक पुरुष के उद्देश्य से कृत जइ पुण पुरिमं संघ, उद्दिसती मज्झिमस्स तो कप्पे। वस्तु उस एक के लिए अग्राह्य, शेष सबके लिए ग्राह्य है। पूर्व और मज्झिम उद्दिढे पुण, दोण्हं पि अकप्पियं होइ॥ पश्चिम तीर्थ में वह सबके लिए अग्राह्य है। एमेव समणवग्गे, समणीवग्गे य पुव्वणिहिटे। पूर्व उपाश्रय के लिए कृत पूर्व-पश्चिम-दोनों के लिए मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्ह वि ण कप्पे॥ अग्राह्य है, मध्यम के लिए ग्राह्य है। मध्यम उपाश्रय में जिसके
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