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भावना
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आगम विषय कोश-२
आसक्ति भी व्यक्ति को विनष्ट कर देती है। जैसे-शलभ रूपासक्ति नहीं हैं, हितशिक्षा का आचरण नहीं करते हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव के कारण दीपक में गिर कर जल जाता है। आसक्ति कर्मबंध का रखना। यह अनुचिन्तन करना कि जो मृत्पिण्ड या काष्ठ के तुल्य द्वार है। राग से उत्पन्न अनिष्ट परिणामों का चिंतन करना आश्रव- हैं, वे तीर्थंकर के उपदेश को भी निष्फल कर देते हैं, उन पर क्रोध अनुप्रेक्षा है।
करने से क्या?-तभा ७/६) ८. संवर अनुप्रेक्षा-आश्रवद्वारों को निरुद्ध करने से संवर होता
६. देवसंबंधी संक्लिष्ट भावना है। व्रत, गुप्ति आदि के परिपालन से निष्पन्न गुणों का अनुचिन्तन
कंदप्प देवकिव्विस, अभिओगा आसुरा य सम्मोहा। करना संवर अनुप्रेक्षा है।
एसा य संकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिया॥ ९. निर्जरा अनुप्रेक्षा-वेदना और विपाक निर्जरा के पर्यायवाची हैं।
__ कन्दर्पः-कामस्तत्प्रधाना: षिङ्गप्राया देवविशेषाः नारक आदि जीवों के कर्मभोग से होने वाली निर्जरा अ
कन्दा उच्यन्ते तेषामियं कान्दी। एवं देवानां मध्ये है-उससे अशुभानुबंध होता है, भवभ्रमण नहीं मिटता। तपस्या और
किल्बिषाः-पापा अत एवास्पृश्यादिधर्माणश्चण्डालपरीषहजय से निष्पन्न निर्जरण शुभानुबंध या निरनुबंध होता है,
प्रायास्तेषामियं दैवकिल्बिषी।"किङ्करस्थानीया देवविशेषाअतः यह बुद्धिपूर्वक निर्जरा है।
स्तेषामियमाभियोगी।असुरा:-भवनपतिदेवविशेषास्तेषामिय१०. लोक अनुप्रेक्षा-इसमें पंचास्तिकायात्मक लोक के स्वरूप
मासुरी। सम्मोहा:-मूढात्मानो देवविशेषास्तेषामियं का तथा उसमें होने वाली विचित्र-विविध परिणतियों का अनचिन्तन
साम्मोही।
(बृभा १२९३ वृ) किया जाता है। इससे तत्त्वज्ञान की विशुद्धि होती है। ११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा-अनादि काल से संसार में भ्रमण करने देव से संबंधित संक्लिष्ट भावना के पांच प्रकार हैंवाला प्राणी मिथ्यादर्शन, अज्ञान आदि से अभिभत होता है। विविध १. कांदपी-कामप्रधान कामुकप्राय देवविशेष से संबंधित भावना। दुःखों से अभिहत प्राणी के लिए सम्यगदर्शन आदि से विशुद्ध २. दैवकिल्विषिकी-देवों में जो किल्बिष-अस्पृश्यधर्मा होते हैं, बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है। इस अनुचिन्तन से बोधिलाभ होने पर उनसे संबंधित भावना। ३. आभियोगी-किंकरस्थानीय देव प्रमाद का स्वतः परिहार हो जाता है।
आभियोग्य कहलाते हैं, उनसे संबंधित भावना। ४. आसुरी१२. धर्म अनुप्रेक्षा-परमर्षि अर्हत् द्वारा प्रणीत स्वाख्यात धर्म भवनपति देव असुर कहलाते हैं, उनसे संबंधित भावना। संसार से निस्तार करने वाला है, निःश्रेयस को प्राप्त कराने वाला ५. साम्मोही-मूढात्मा देवविशेष सम्मोह कहलाते हैं, उनसे है। सम्यग्दर्शन उसका साधन है। समिति-गुप्ति से उसकी सुरक्षा होती है। इस प्रकार धर्म की अनुप्रेक्षा करने से स्वीकृत मोक्षमार्ग ०कांदी भावना का स्वरूप की सम्यक् आराधना होती है। तभा ९/७
कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले यावि हासणकरे य। मैत्री आदि चार भावनाएं
विम्हाविंतो य परं, कंदप्पं भावणं कुणइ॥ १. मैत्रीभावना-सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव का अनुचिन्तन कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अनिहुया य संलावा। करना-सब सत्त्वों से मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। कंदप्पकहाकहणं, कंदप्पुवएस संसा य॥ २. प्रमोद भावना-जो गुणों में अपने से अधिक हों, उनके प्रति भुम-नयण-वयण-दसणच्छदेहिं कर-पाद-कण्णमाईहिं। विनय का प्रयोग करना, उनका गुणोत्कीर्तन करते हुए उत्फुल्ल तं तं करेइ जह हस्सए परो अत्तणा अहसं॥ होकर मानसिक प्रहर्ष प्रकट करना।
वायाकोक्कुइओ पुण, तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो। ३. करुणा भावना-संक्लिष्ट प्राणियों के प्रति करुणा भावना नाणाविहजीवरुए, कुव्वइ मुहतूरए चेव॥ करना, हितोपदेश के द्वारा उन पर अनुग्रह करना।
भासइ दुयं दुयं गच्छए अ दरिउ व्व गोविसो सरए। ४. माध्यस्थ भावना-जो शिक्षा को ग्रहण-धारण करने के योग्य
फुट्ट व ठिओ वि दप्पेणं॥
सव्वहु
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