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आगम विषय कोश - २
५. अनित्य भावना : आचार्य द्वारा प्रतिबोध तेलोक्कदेवमहिया, तित्थयरा नीरया गया सिद्धिं । थेरा वि गया केई, चरणगुणपभावया धीरा ॥ बंभीय सुंदरी या, अन्ना वि य जाउ लोगजेट्ठाओ । ताओ व य कालगया, किं पुण सेसाउ अज्जाउ ॥ न हु होइ सोइयव्वो, जो कालगओ दढो चरित्तम्मि । सो होइ सोतियव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे ॥ (बृभा ३७३७-३७३९)
(साध्वी के संबंधीजन कालगत होने पर आचार्य साध्वियों उपाश्रय में अनुशिष्टि हेतु जा सकते हैं। आचार्य उसे सांत्वना देते हुए अनित्य अनुप्रेक्षा को समझाते हुए कहते हैं—- ) तीन लोक के देवों द्वारा पूजित, कर्मरज से रहित तीर्थंकर मुक्त हो गए। कई चरणगुणप्रभावक धीरस्थविर (आचार्य आदि) भी मुक्त हो गएकालगत हो गए, तो शेष जनों के मरण का क्या आश्चर्य ?
लोकज्येष्ठा ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दनबाला, मृगावती आदि साध्वियां भी कालगत हो गईं तो शेष साध्वियों की क्या बात ?
यदि चारित्र में दृढ़ पुरुष कालगत होता है, तो वह शोचनीय नहीं है। शोचनीय वह है, जो संयम में शिथिल होकर विहरण करता है।
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• अन्यत्व भावना
जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे । इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति ॥ (व्यभा ४३९९ )
'जैसे कोश (म्यान) में निक्षिप्त तलवार भिन्न है, कोश भिन्न है, वैसे ही मेरा शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है ' - इस प्रकार अनुचिन्तन करना अन्यत्व भावना है। * अनित्य आदि भावनाएं
द्र श्रीआको १ अनुप्रेक्षा, भावना (तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षाओं तथा मैत्री आदि चार भावनाओं का स्वरूप इस प्रकार है१. अनित्य अनुप्रेक्षा - शय्या, आसन, वस्त्र, परिवार आदि का संयोग अनित्य है, यह शरीर अनित्य है, इसका उपचय- अपचय होता है। जिसका संयोग होता है, उसका वियोग निश्चित है - इस
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भावना
प्रकार परिणमन की अनित्यता का अनुचिन्तन करने वाला वस्तु का वियोग होने पर दुःखी नहीं होता। उसका पदार्थ के प्रति स्नेहप्रतिबंध छिन्न हो जाता है।
२. अशरण अनुप्रेक्षा - जैसे सिंह से आहत मृगशिशु के लिए कहीं शरण नहीं है, वैसे ही जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु, प्रियवियोग, अप्रियसंप्रयोग आदि से समुत्थित दुःखों से आहत प्राणी के लिए संसार में शरण नहीं है। ऐसा चिंतन करने वाला निर्विण्ण होकर अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म की शरण स्वीकार करता है।
३. संसार अनुप्रेक्षा - अनादिकाल से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवयोनि में कृतकर्मों के अनुसार चक्र की तरह परिभ्रमण कर रहा है। इस संसार में कोई स्वजन नहीं है, कोई परजन नहीं है अथवा सब स्वजन भी हैं, परजन भी हैं। एक जन्म की मां दूसरे जन्म में भगिनी हो जाती है, भगिनी भार्या हो जाती है, स्वामी दास और दास स्वामी हो जाता है। चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकता हुआ जीव तीव्र कष्टों का अनुभव करता है - इस अनुचिन्तन से निर्वेद - भवविराग उत्पन्न होता है। ४. एकत्व अनुप्रेक्षा- मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है। मैं अकेला जन्मता हूं, अकेला मरता हूं, अकेला ही अपने कृतकर्मों का फल भोगता हूं । - इस अनुचिन्तन से स्वजनों के प्रति रागानुबंध और परजनों के प्रति द्वेषानुबंध छिन्न हो जाता है। निःसंगता से मुक्तिपथ प्रशस्त होता है - ऐसा अनुचिन्तन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है। ५. अन्यत्व अनुप्रेक्षा - शरीर अन्य है, मैं (आत्मा) अन्य हूं। शरीर इन्द्रियग्राह्य है, मैं अतीन्द्रिय हूं। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूं। शरीर जड़ है, मैं चेतन हूं। शरीर अज्ञ है, मैं प्राज्ञ हूं। संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों-लाखों शरीर अतीत हो गए, किन्तु मैं वही यह हूं, उन सबसे भिन्न हूं। इस प्रकार 'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न' का अनुचिन्तन करने से शरीर - ममत्व विच्छिन्न होता है, निःश्रेयस का प्रयत्न सफल होता है ।
६. अशुचि अनुप्रेक्षा- यह शरीर अशुचि है, अशुचि का भाजन है, अशुचि से उत्पन्न हुआ है, आहार की परिणति अशुचिमय है। यह सुगंधित द्रव्यों को भी दुर्गंधित कर देता है। अशुचिता की अनुप्रेक्षा से शरीर में निर्वेद उत्पन्न होता है। ७. आश्रव अनुप्रेक्षा - पांच इन्द्रियविषयों में प्रसक्त चित्त से अकुशल आगम और कुशल का निर्गम होता है। एक इन्द्रिय-विषय की
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