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आगम विषय कोश-२
४३९
भावना
० निमित्त-अतीत, वर्तमान और अनागत के भेद से निमित्त तीन निमित्तादेशी-निमित्त के तीन प्रकार हैं-अतीतसंबंधी, वर्तमानप्रकार का है। चूडामणि आदि शास्त्र त्रिकालवर्ती लाभ-अलाभ संबंधी और भविष्यसंबंधी। इनमें से प्रत्येक के छह भेद हैंज्ञान के हेतु हैं। निमित्तशास्त्र के बिना लाभ-अलाभ का ज्ञान नहीं लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण-इनका कथन करने वाला होता, इसलिए इसे निमित्त कहा जाता है।
यद्यपि आभियोगिकी भावना करता है, किन्तु प्रबल अहंकार के ० ऋद्धि आदि का गौरव एवं अपवाद-जो ऋद्धि, रस और सात- अभिनिवेश में बताया जाने वाला यह निमित्त आसुरी भावना का गौरव के लिए कौतुक आदि का प्रयोग करता है, वह आभियोगिक जनक होता है, अन्यथा यह आभियोगिकी भावना ही कहलाती है। -देव आदि के प्रेष्यकर्मव्यापार फल वाले कर्म का बंध करता है। ० निष्कृप-जो गमन, शयन आदि करते समय स्थावर आदि जीवों जो अतिशयज्ञानी गौरवरहित होकर निस्पृहवृत्ति से प्रवचन की के प्रति निर्दयी हो जाता है, उन जीवों पर चंक्रमण आदि करके प्रभावना के लिए कौतुक आदि करता है, वह आराधक होता है भी अनुताप नहीं करता, वह निष्कृप होता है।
और तीर्थोन्नति करने के कारण उच्चगोत्र का बंध करता है-यह ० निरनुकंप-जो दूसरे को किसी भय से कांपता हुआ देखकर अपवाद पद है।
कम्पित नहीं होता, कठोर हृदय बन जाता है। पीड़ित प्राणी के ० आसुरी भावना का स्वरूप
प्रकम्पन के साथ जो कम्पन होता है, वह अनुकम्पन है। यह अणुबद्धविग्गहो चिय, संसत्ततवो निमित्तमाएसी। अनुकम्पन जिसमें नहीं होता, वह निरनुकम्प है। निक्किव निराणुकंपो, आसुरियं भावणं कुणइ॥ ० साम्मोही भावना का स्वरूप निच्चं वुग्गहसीलो, काऊण य नाणुतप्पए पच्छा। उम्मग्गदेसणा मग्गदूसणा मग्गविप्पडीवत्ती। न य खामिओ पसीयइ, सपक्ख-परपक्खओ आवि॥ मोहेण य मोहित्ता, सम्मोहं भावणं कुणइ॥ आहार-उवहि-पूयासु, जस्स भावो उ निच्चसंसत्तो। नाणाइ अदूसिंतो, तव्विवरीयं तु उवदिसइ मग्गं। भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए॥ उम्मग्गदेसओ एस आय अहिओ परेसिं च॥ तिविह निमित्तं एक्केक्क छव्विहं जं तु वन्नियं पुव्वि। नाणादि तिहा मग्गं, दूसयए जे य मग्गपडिवन्ना। अभिमाणाभिनिवेसा, वागरियं आसुरं कुणइ॥ अबुहो पंडियमाणी, समुट्ठितो तस्स घायाए॥ चंकमणाई सत्तो, सुनिक्किवो थावराइसत्तेसु। जो पुण तमेव मग्गं, दूसेउमपंडिओ सतक्काए। काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ॥ उम्मग्गं पडिवज्जइ, अकोविअप्पा जमालीव॥ जो उ परं कंपंतं, दवण न कंपए कढिणभावो। भावोवहयमईओ, मुज्झइ नाण-चरणंतराईसु। एसो उ निरणुकंपो, अणु पच्छाभावजोएणं॥ इड्डीओ अ बहुविहा, दटुं परतित्थियाणं तु॥
(बृभा १३१५-१३२०) जो पुण मोहेइ परं, सब्भावेणं व कइअवेणं वा। जो अनुबद्धविग्रह है, संसक्ततपस्वी है, निमित्त बताता है, सम्मोहभावणं सो, पकरेइ अबोहिलाभाय॥ जो दया और अनुकंपा से शून्य है, वह आसुरी भावना करता है। 'ज्ञानादीनि' पारमार्थिकमार्गरूपाण्यदूषयन् 'तद्विपरीतं' ० अनुबद्धविग्रह-जिसका नित्य कलह करने का स्वभाव है, ज्ञानादिविपरीतमेवोपदिशति 'मार्ग' धर्मसम्बन्धिनम्, एष कलह करने के पश्चात जो अनताप नहीं करता है, स्वपक्ष-परपक्ष उन्मार्गदेशकः"त्रिविधं पारमार्थिकं मार्गस्वमनीषिकाकल्पितै(साधु-साध्वीवर्ग-गृहस्थवर्ग) के द्वारा क्षमा मांगे जाने पर भी जो ऑतिदूषणैर्दूषयति... अकोविदात्मा' सम्यक् शास्त्रार्थपरिज्ञानप्रसन्न नहीं होता, वह अनुबद्ध-विग्रह कहलाता है।
विकलो जमालिवत् यथाऽसौ भगवद्वचनं "क्रियमाणं कृतम्" ० संसक्ततप-जिसकी भावधारा आहार, उपधि और पूजा-प्रतिष्ठा इति दूषयित्वा "कृतमेव कृतम्" इति प्रतिपन्नवान्। एषा में सदा प्रतिबद्ध रहती है, वह रसगौरव आदि भावों से उपहत मार्गविप्रतिपत्तिः। "ज्ञानान्तराणि नाम ज्ञानविशेषाः तद्विषयो होकर आहार आदि की प्राप्ति के लिए तप उपधान करता है। व्यामोहो यथा-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसान
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