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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
(अंक
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प्रतीकाक्षर अंक प्रतीकाक्षर द्रीन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर बेला। त्रीन्द्रिय, चतरिन्द्रिय एका
लृ ३
और पंचेन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर क्रमश: बेला (दो दिन लण्का
का उपवास), तेला, चोला और पंचोला आता है। लृ र्तृ
एकेन्द्रिय आदि जीवों का संघट्टन और परिताप होने पर लृ फ्र
जीत व्यवहार के आधार पर निर्विकृतिक आदि तप प्रायश्चित्त लृ ा
दिया जाता है (द्र व्यवहार)। अथवा जिनके जितनी इन्द्रियां हैं, १८ ल ह्र ल ॐ
उतने कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है। (द्र कल्याणक)
० निषिद्ध व्यक्तियों को दीक्षित करने पर-पुरुषों में अठारह, २५ लृटुंर्तृ स्त्रियों में बीस तथा नपुंसक में दस प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के
-दअचू पृ २५०, २५१) । अयोग्य माने गए हैं। इनको दीक्षित करने वाला प्रायश्चित्त का १९. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार
भागी होता है। (द्र दीक्षा) अथवा आरोपणा प्रायश्चित्त निशीथ सो पुण चउव्विहो दव्व-खेत्त-काले य होति भावे य। और कल्पाध्ययन में अभिहित है। सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविधो पुण होति दव्वम्मि॥ ० अचित्त का प्रायश्चित्त-दस एषणा दोष, पन्द्रह उद्गम दोष पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्ति-तसेसुहोति सच्चित्ते। (अध्यवपूरक का मिश्र में अन्तर्भाव) तथा सोलह उत्पादन के दोषों अचित्ते पिंड उवधी, दस पन्नरसेव सोलसगं॥ से युक्त भक्त-पान और उपधि ग्रहण करने पर। संघट्टण परितावण-उद्दवणा वज्जणा य सट्ठाणं।
२. क्षेत्र विषयक-जनपद, मार्ग. सेना का अवरोध. मार्गातीत दाणं तु चउत्थादी, तत्तियमित्ता व कल्लाणे॥
(क्षेत्रातिक्रांत आहार आदि ग्रहण करना)--इनमें अविधि से आचरण अधवा अहारसग, पुरिस इत्यासु वाज्नया वासार करने पर प्राप्त प्रायश्चित्त। दसगं च नपुंसेसुं, आरोवण वणिया तत्थ॥
३. काल विषयक- दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन में या रात में अयतना जणवयऽद्धाणरोधएँ, मग्गादीए य होति खेत्तम्मि।
में या विधि-विपरीत आचरण करने से प्राप्त प्रायश्चित्त। दुब्भिक्खे य सुभिक्खे, दिया व रातो व कालम्मि॥ ४. भाव विषयक योगत्रिक (मन, वचन, काय) और करणत्रिक जोगतिए करणतिए, दप्प-पमायपुरिसे य भावम्मि।
(कृत-कारित-अनुमति) की अशुभ प्रवृत्ति, दर्पिका प्रतिसेवना पृथिव्यादीनां संघट्टनादौ प्रत्येकं यथापत्तिप्रायश्चित्तं
(निष्कारण अकल्प्य सेवन) तथा प्रमाद से संबंधित प्रायश्चित्त। तत् स्वस्थानमित्युच्यते,द्वीन्द्रियमपद्रावयतः षष्ठं त्रीन्द्रिय
इसमें पुरुषों के आधार पर भी प्रायश्चित्त दिया जाता है। मपद्रावयतोऽष्टमं चतुरिन्द्रिये दशमं, पञ्चेन्द्रिये द्वादशमम्,"" अथवा यस्य यावन्ति इन्द्रियाणि तस्य तावन्ति कल्याणानि म
. पथ्वीकाय-विराधना और प्रायश्चित्त प्रायश्चित्तं,... वर्जना नाम प्रव्राजनायां निषेध:""अथवा
चतुरंगुलप्पमाणा, चउरो दो चेव जाव चतुवीसा। आरोपणाप्रायश्चित्तं प्राककल्पाध्ययने सप्रपञ्चमभिहित
अंगुलमादी वडी, पमाण करणे य अटे व॥ मिति। . (व्यभा ४०१०-४०१४,४०१७ वृ)
उवरिं तु अप्पजीवा, पुढवी सीताऽऽतवाऽणिलाऽभिहता। प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं
चउरंगुलपरिवुड्डी, तेणुवरि अहे दुअंगुलिया॥ १. द्रव्यविषयक-इसके दो प्रकार हैं-सचित्त और अचित्त ।
(निभा १५६, १५७) सचित्त का प्रायश्चित्त दो प्रकार से आता है
पृथ्वीकाय-खनन संबंधी प्रायश्चित्त इस प्रकार है• जीवों की विराधना होने पर एकेन्द्रिय-पृथ्वी, पानी, अग्नि, पृथ्वी को चार अंगुल प्रमाण खोदने पर चतुर्लघु, पांच से वायु और वनस्पति का अपद्रावण (प्राणवियोजन) होने पर उपवास। आठ अंगुल तक खोदने पर चतुर्गरु, नौ से बारह और तेरह से
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