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प्रायश्चित्त
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आगम विषय कोश-२
पुमं बाला थिरा चेव, कयजोग्गा य सेतरा। होते हैं-कृतकरण और अकृतकरण, स्थिर और अस्थिर, गीतार्थ अधवा दुविहा पुरिसा, होंति दारुण-भद्दगा॥ और अगीतार्थ।
(व्यभा ४०२५, ४०२६) कृतकरण वे हैं, जो गृहस्थपर्याय और मुनिपर्याय में बेले, पुरुषों के अनेक प्रकार हैं-गुरु आदि पुरुष अथवा परिणामक,
तेले आदि की विशिष्ट तपस्या से अपने आपको परिकर्मित कर अपरिणामक और अतिपरिणामक पुरुष अथवा ऋद्धिमान प्रव्रजित
चुके हैं। कुछ आचार्यों का अभिमत है कि गीतार्थ नियमतः कृतकरण ऋद्धिविहीन प्रव्रजित, असह-ससह, पुरुष, स्त्री, नपुंसक, बाल
होते हैं। क्योंकि महाकल्पश्रुत आदि आगमों के अध्ययनकाल में वे वृद्ध, स्थिर-अस्थिर, कृतयोगी-अकृतयोगी-इन सबके तुल्य अपराध
दीर्घकाल तक योगवहन कर योगार्ह हो जाते हैं। होने पर भी प्रायश्चित्त में भिन्नता रहती है। अथवा स्वभावतः पुरुष ।
० निर्गत-वर्तमान, आत्मतरक-परतरक दो प्रकार के होते हैं-दारुण और भद्र-तुल्य अपराध होने पर भी ।
निग्गयवटुंता वि य, संचइता खलु तहा असंचइता। इनके प्रायश्चित्त में भेद रहता है।
एक्केक्काए दुविधा, उग्घात तहा अणुग्घाता॥
छेदादी आवण्णा, उ निग्गता ते तवा उ बोधव्वा। ३२. प्रायश्चित्तवाहक के प्रकार : कृतकरण आदि
जे पुण वटुंति तवे, ते वटुंता मुणेयव्वा॥ कतकरणा इतरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा।
मासादी आवण्णे, जा छम्मासा असंचयं होति। निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी।
छम्मासाउ परेणं, संचइयं तं मुणेयव्वं ॥ अकतकरणा वि दुविहा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा।
(व्यभा ४७२-४७४) जं सेवेति अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा॥
प्रायश्चित्त वहन करने वाले पुरुष के दो प्रकार हैंअहवा सावेक्खितरे, निरवेक्खा सव्वसो उ कयकरणा।
१. निर्गत-तपोयोग्य प्रायश्चित्त को अतिक्रान्त कर छेद आदि इतरे कयाऽकया वा, थिराऽथिरा होति गीतत्था।
प्रायश्चित्त प्राप्त। छद्रऽट्रमादिएहिं, कयकरणा ते उ उभयपरियाए।
२. वर्तमान-तपयोग्य प्रायश्चित्त में वर्तमान अथवा तपपर्यंत प्रथम अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई॥
छह प्रायश्चित्तों में स्थित। (व्यभा १५९-१६२)
वर्तमान के दो प्रकार हैं-१. संचयिता-छह मास से तप के आधार पर प्रायश्चित्त वाहक पुरुषों के दो भेद हैं- अधिक (उत्कृष्ट १८० मास) प्रायश्चित्त प्राप्त। कृतकरण और अकृतकरण । कृतकरण के दो भेद हैं
२. असंचयिता-मासिक यावत् छहमासिक प्रायश्चित्त में वर्तमान। १. सापेक्ष - गच्छवासी। जैसे आचार्य, उपाध्याय, साधु । इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं-उद्घात और अनुद्घात। २. निरपेक्ष - संघमक्त । जैसे जिनकल्पिक आदि।
पच्छित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिसा चउव्विहा होति। अकृतकरण भिक्षु दो प्रकार के होते हैं-अगीतार्थ और गीतार्थ। उभयतर आततरगा, परतरगा अण्णतरगा य॥ इनके दो-दो भेद हैं
आततर-परतरे या, आततरे अभिमुहे य निक्खित्ते ।.... १. स्थिर-धृति-संहनन-संपन्न, २. अस्थिर-धुति-संहनन-हीन।
(व्यभा ४७९, ४८०) स्थिर गीतार्थ जितनी मात्रा में प्रायश्चित्त स्थान का सेवन
प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष चार प्रकार के होते हैंकरता है, उतनी मात्रा में उसे परिपूर्ण प्रायश्चित्त दिया जाता है।
१. उभयतरक-उत्कृष्ट छहमासिक तप करने पर भी जो अग्लान अस्थिर अगीतार्थ को गुरु उसकी सामर्थ्य के आधार पर भाव से आचार्य आदि का वैयावृत्त्य करते हैं। वे स्वयं और कम या पूर्ण प्रायश्चित्त देते हैं।
आचार्य-दोनों के उपग्रहकारी होते हैं। अथवा पुरुषों के दो प्रकार हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष। निरपेक्ष २. आत्मतरक-जो तपोबलिष्ठ हैं किन्तु वैयावृत्त्यलब्धिसम्पन्न सर्वथा कतकरण, गीतार्थ और स्थिर होते हैं। सापेक्ष दोनों प्रकार के नहीं हैं। वे तप के द्वारा स्वयं पर ही अनग्रह करते हैं।
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